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________________ १. आगम, २. श्रुत, ३. आज्ञा, ४. धारणा, ५. जीत । १. जहाँ आगम हो वहाँ आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करें। २. जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। ३. जहाँ श्रुत न हो, आज्ञा हो, वहाँ आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। ४. जहाँ आज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। ५. जहाँ धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करें - १ आगम, २. श्रुत, ३. आज्ञा, ४. धारणा और ५. जीत से । इनमें से जहाँ-जहाँ जो हो वहाँ-वहाँ उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करें। प्र. - भंते! आगमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने ( इन पांच व्यवहारों के सम्बन्ध में) क्या कहा है ? उ.- ( आयुष्मन् श्रमणो ) इन पांचों व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो तब-तब उस उस विषय में अनिश्रितोपाश्रित - ( मध्यस्थ ) रहकर सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है। आगमव्यवहार केवलज्ञानियों, मनः पर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगम नव पूर्व, दश पूर्व और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार व्यवहार है। ही है। श्रुतव्यवहार आठ पूर्व पूर्ण और नवम पूर्व अपूर्णधारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प (बृहत्कल्प), व्यवहार, आचारप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदश्रुत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। आज्ञाव्यवहार दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलग दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार १. ठाणं - ५ उ० २ सू० ४२१, तथा भग० श० ८. उ० ८. सू० ८, ९ २. आगमव्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । १. केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपूर्ण उत्कृष्ट आगमव्यवहार है, क्योंकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। २. मनः पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष हैं फिर भी वे दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मनः पर्यवज्ञानियों या अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) आगमव्यवहार है। ३. चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व (सम्पूर्ण ) यद्यपि विशिष्ट श्रुत हैं, फिर भी परोक्ष हैं, अतः इनके धारक द्वारा प्ररूपित या आचरित विधि-निषेध भी आगम व्यवहार है, किन्तु यह जघन्य आगमव्यवहार है। २०
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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