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[दशाश्रुतस्कन्ध वह अनगार भगवंत ईर्या-समिति का पालन करने वाला यावत् ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होता है।
इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक संयमपर्याय का पालन करता है, अनेक वर्षों तक संयमपर्याय का पालन करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भी भक्त-प्रत्याख्यान करता है, भक्तप्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करता है, अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है और जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है।
हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदानशल्य का यह पाप रूप परिणाम है कि वह उस भव से सिद्ध नहीं होता है यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं कर पाता है। निदानरहित की मुक्ति
एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते-इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।
जस्स णं धम्मस्स सिक्खाए निग्गंथे उवट्ठिए विहरमाणे से य परक्कमेज्जा से य परक्कममाणे सव्वकामविरत्ते, सव्वरागविरत्ते, सव्वसंगातीते, सव्वहा सव्वसिणेहातिक्कंते सव्वचरित्तपरिवुडे।
तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं, अणुत्तरेणं दसणेणं जाव' अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अणंते, अणुत्तरे, निव्वाघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पजेज्जा।
तएणं से भगवं अरहा भवइ, जिणे, केवली, सव्वण्णू, सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ, तं जहा
आगई, गई, ठिई, चवणं, उववायं, भुत्तं, पीयं, कडं, पडिसेवियं, आवीकम्मं, रहोकम्म, लवियं, कहियं, मणोमाणसियं।
सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे विहरइ।
से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूइं वासाई केवलिपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएइ, आभोएत्ता भत्तं पच्चक्खाएइ, पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताइं अणसणाइ छेदेइ, तओ पच्छा चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।
एवं खलु समणाउसो! तस्स अणिदाणस्स इमेयारूवे कल्लाणे फलविवागे जं तेणेव . भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ। १. प्रथम निदान में देखें। २. दसा. द. १०, सु. ३३ नवसुत्ताणि ३. प्रथम निदान में देखें।