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________________ जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है-इसी प्रकार व्यवहारज्ञ व्यवहारों द्वारा व्यवहर्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार-व्याख्या व्यवहार की प्रमुख व्याख्यायें दो हैं। एक लौकिक व्याख्या और दूसरी लोकोत्तर व्याख्या। लौकिक व्याख्या दो प्रकार की है-१. सामान्य और २. विशेष । सामान्य व्याख्या है-दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण अथवा रुपये-पैसों का लेन-देन। विशेष व्याख्या है-अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात् न्याय । इस विशिष्ट व्याख्या से सम्बन्धित कुछ शब्द प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग वैदिक परम्परा की श्रुतियों एवं स्मृतियों में चिरन्तन काल से चला आ रहा है। यथा १. व्यवहारशास्त्र-(दण्डसंहिता) जिसमें राज्य-शासन द्वारा किसी विशेष विषय में सामूहिक रूप से बनाये गये नियमों के निर्णय और नियमों का भंग करने पर दिये जाने वाले दण्डों का विधान व विवेचन होता है। २. व्यवहारज्ञ-(न्यायाधीश) जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता होता है वही किसी अभियोग आदि पर विवेकपूर्वक विचार करने वाला एवं दण्डनिर्णायक होता है। लोकोत्तर व्याख्या भी दो प्रकार की है-१. सामान्य और २. विशेष । सामान्य व्याख्या है-एक गण का दूसरे गण के साथ किया जाने वाला आचरण। अथवा एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ, एक आचार्य, उपाध्याय आदि का दूसरे आचार्य, उपाध्याय आदि के साथ किया जाने वाला आचरण। विशेष व्याख्या है-सर्वज्ञोक्त विधि से तप प्रभृति अनुष्ठानों का 'वपन' याने बोना और उससे अतिचारजन्य पाप का हरण करना...... व्यवहार है। ___ 'विवाप' शब्द के स्थान में 'व्यव' आदेश करके 'हार' शब्द के साथ संयुक्त करने पर व्यवहार शब्द की सृष्टि होती है-यह भाष्यकार का निर्देश है। व्यवहार के भेद-प्रभेद व्यवहार दो प्रकार का है-१. विधि व्यवहार और २. अविधि व्यवहार । अविधि व्यवहार मोक्षविरोधी है, इसलिए इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। १. गाहा-ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होई करणभूतो उ। ववहरियव्वं कज्जं, कुंभादि तियस्स जह सिद्धी।। -व्य० भाष्यपीठिका गाथा २ २. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः। व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥ -हितो० मि०७२ ३. परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु। वाक्यानयायाद् व्यवस्थानं, व्यवहार उदाहृतः॥ -मिताक्षरा ४. व्यव० भाष्य० पीठिका गा०४ ५. व्यव० भाष्य० पीठिका गा०.४ ६. व्यय० भाष्य० पीठिका गाथा-६ १७
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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