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________________ ६६] [दशाश्रुतस्कन्ध आठवें महीने के बावीसवें दिन, पूर्व प्रतिमा के उपवास का पारणा कर, तेवीसवें दिन उपवास करके, चौवीसवें दिन बेला करके ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन किया जाता है। बेले में दिन रात सीधे खड़े रहकर कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग में हाथों को शरीर से सटाकर जानु पर्यन्त सीधे रखना, दोनों पांवों को संकुचित करना, वक्षस्थल और मुख कुछ आगे झुकाकर सीधे खड़े रहना होता है। इस प्रकार अहोरात्रि के कायोत्सर्ग से इस प्रतिमा का आराधन किया जाता है, शेष सभी वर्णन पूर्व प्रतिमाओं के समान है। __ पच्चीसवें दिन बेले का पारणा करके, छव्वीसवें, सत्तावीसवें और अट्ठावीसवें इन तीन दिनों में तेला किया जाता है। तेले के दिन अर्थात् तीसरे दिन सम्पूर्ण रात्रि का कायोत्सर्ग करके बारहवीं प्रतिमा का पालन किया जाता है। कायोत्सर्ग की विधि ग्यारहवीं प्रतिमा के समान है किन्तु इस प्रतिमा में सारी रात एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर रखना, आँखों की पलकें भी नहीं झपकाना, अंगोपांगों को सर्वथा स्थिर रखना, सभी इन्द्रियों को अपने विषय से निवृत्त रखना तथा किसी प्रकार का उपसर्ग होने पर किंचित् भी कायोत्सर्ग मुद्रा से विचलित न होना, यह इस बारहवीं प्रतिमा की विशेषता है। आठवीं से बारहवीं भिक्षुप्रतिमा तक के कायोत्सर्गों में मल-मूत्र की बाधा होने पर भिक्षु कायोत्सर्ग अवस्था छोड़कर पूर्व प्रतिलेखित भूमि में जाकर मल-मूत्र का त्याग करके पुनः उसी स्थान पर आकर उसी आसन या मुद्रा में स्थित हो सकता है। ऐसी उग्रतम साधना में भी शरीर के स्वाभाविक । वेग को नहीं रोकना यह वीतराग मार्ग का स्वस्थ विवेक है। यह शरीर के प्राकृतिक नियमों से विपरीत नहीं चलने का निर्देश है। ऐसे प्रसंगों में छः मास तक मल-मूत्र रोकने की शक्ति का कथन भी किया जाता है जो आगमों के विधान के अनुकूल नहीं है। एक पुद्गल पर दृष्टि रखने का तात्पर्य यह है कि सब ओर से दृष्टि हटाकर नासिका या पैरों के नखों पर दृष्टि को स्थिर करना। ___ इस बारहवीं प्रतिमा में उपसर्ग अवश्य होते हैं, ऐसा भी कहा जाता है, किन्तु सूत्र में इतना ही कथन है कि सम्यग् आराधना का यह सुफल है और असम्यग् आराधना का यह कुफल है। आठवें महीने के २९वें दिन तेले का पारणा करके बारह ही प्रतिमा पूर्ण कर दी जाती हैं। इस प्रकार मिगसर की एकम से प्रतिमायें प्रारम्भ की जाएँ तो आषाढ़ी पूनम के पूर्व १२ भिक्षु प्रतिमाओं की आराधना पूर्ण हो जाती है। बारह भिक्षुप्रतिमा की उग्र साधना करने वाले श्रमण कर्मों की महान् निर्जरा करके आराधक होकर शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। ॥सातवीं दशा समाप्त॥
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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