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________________ ६०] [दशाश्रुतस्कन्ध इसी प्रकार अहोरात्रिकी प्रतिमा का भी वर्णन है। विशेष यह है कि निर्जल षष्ठभक्त करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को थोड़ा-सा झुकाकर दोनों पैरों को संकुचित कर और दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग करना चाहिए। शेष पूर्ववत् यावत् यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एगराइयं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स जाव अहियासेज्जा। कप्पइ से अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसिं पठभारगएणं काएणं एगपोग्गलट्ठिताए दिट्ठीए अणिमिसनयणेहिं अहापणिहितेहिं गत्तेहिं सव्विंदिएहिं गुत्तेहिं दो वि पाए साह? वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए। तत्थ से दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिया उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा, ते णं उवसग्गा पयलेज्ज वा, पवडेज्ज वा, नो से कप्पइ पयलित्तए वा, पवडित्तए वा। तत्थ णं उच्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जा, नो से कप्पइ उच्चारपासवणं उगिण्हित्तए वा, णिगिण्हित्तए वा।कप्पइ से पुव्वपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिट्ठवित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। एगराइयं भिक्खुपडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओठाणा अहियाए, असुभाए, अक्खमाए अणिस्सेयसाए, अणणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा १. उम्मायं वा लभेज्जा, २. दीहकालियं वा रोगायंकं पाउणिज्जा, ३. केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा। __एगराइयं भिक्खुपडिमंसम्म अणुपालेमाणस्सअणगारस्स इमे तओ ठाणा हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, अणुगामियत्ताए भवंति। तं जहा १.ओहिनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, २. मणपज्जवनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, ३. केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेजा। एवंखलु एगराइयं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं, सम्मकाएणं फासित्ता, पालित्ता, सोहित्ता, तीरित्ता, किट्टित्ता, आराहित्ता, आणाए, अणुपालित्ता या वि भवति। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार यावत् शारीरिक क्षमता से उसे सहन करे। उसे निर्जल अष्टमभक्त करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को थोड़ा-सा आगे की ओर झुकाकर, एक पदार्थ पर दृष्टि स्थिर रखते हुए अनिमेष नेत्रों से और निश्चल अंगों से सर्व इन्द्रियों को गुप्त रखते हुए दोनों पैरों को संकुचित कर एवं दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग से स्थित रहना चाहिये। ___ वहां यदि देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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