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________________ छठी दशा ] [ ४९ है वह व्यक्तिगत जीवन का वर्णन है । उसमें भी इस प्रकार के तप का वर्णन नहीं है। अपनी इच्छा से साधक कभी भी कोई विशिष्ट तप कर सकता है। आनन्दादि ने भी कोई विशिष्ट तपश्चर्या साधनाकाल में की होगी, किन्तु ऐसा वर्णन नहीं है । यदि उन्होंने तप किया हो तो भी सब के लिये विधान मानना प्रतिमावर्णन से असंगत है। दशाश्रुतस्कन्ध की पहली दशा से पांचवीं दशा तक की जो रचनापद्धति है और नियुक्तिकार ने पांचवीं गाथा में छोटी-छोटी दशाएँ होने का सूचन किया है। तदनुसार प्रस्तुत संस्करण में इस दशा का स्वीकृत पाठ ही उचित प्रतीत होता है । अतः अक्रियावादी और क्रियावादी का वर्णन अप्रासंगिक है, अति विस्तृत है और छेदसूत्र का विषय न होने से अनुपयुक्त भी है। सूयगडांगसूत्र श्रु. २, अ. २ का पाठ यहाँ कभी जोड़ दिया गया है। कब जुड़ा है, यह तो अज्ञात है । इस दशा की उत्थानिका सातवीं दशा के समान है । यथा ‘ये ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ स्थविर भगवन्तों ने कही हैं, वे इस प्रकार हैं— ' इस उत्थानिका के बाद ग्यारह प्रतिमाओं के नाम तथा प्रतिमाओं का क्रमशः वर्णन ही उचित प्रतीत होता है, किन्तु इस विस्तृत पाठ के कारण मूलपाठ में नाम भी नहीं रहे हैं, जबकि सातवीं दशा में भिक्षुप्रतिमा के नाम विद्यमान हैं। प्रतिमा धारण करने वाला तो व्रतधारी श्रावक होता ही है। अतः उत्थानिका के बाद अक्रियावादी का यह विस्तृत वर्णन सर्वथा असंगत है। इसलिए यहाँ उपरोक्त संक्षिप्त पाठ ही स्वीकार किया गया है। विस्तृत पाठ के जिज्ञासु सूयगडांगसूत्र से अध्ययन कर सकते हैं। इस दशाश्रुतस्कन्ध की उत्थानिकाएं विचित्र ही हैं, अतः ये चौदहपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा निर्यूढ हैं, ऐसा नहीं कह सकते। न ही गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित कह सकते हैं और न एक पूर्वधारी देवर्द्धिगणि द्वारा सम्पादित कह सकते हैं। क्योंकि इन उत्थानिकाओं में भगवान् से कहलवाया गया है कि "इस प्रथम दशा में स्थविर भगवंतों ने बीस असमाधिस्थान कहे हैं इत्यादि । " जबकि तीर्थंकर या केवली किसी छद्मस्थविहित विधि - निषेधों का कथन नहीं करते । पांचवीं दशा की उत्थानिका तो और भी विचारणीय है । इस उत्थानिका के प्रारम्भ में कहा है कि स्थविर भगवंतों ने ये दस चित्तसमाधिस्थान कहे हैं। बाद में कहा - भगवान् महावीर ने निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित करके दस चित्तसमाधिस्थान कहे । इस प्रकार एक ही उत्थानिका दो प्रकार के कथन पाठक स्वयं पढ़ें और सोचें कि वास्तविकता क्या है। आठवीं दशा के पाठों में भी जो परिवर्तन के प्रयत्न हुए हैं, वे उसी दशा के विवेचन में देखें तथा आठवीं दशा का और दसवीं दशा का ( उपसंहार पाठ) भी विचारणीय है । इन विचित्रताओं को देखकर यह अनुमान किया गया है कि तीन छेदसूत्रों के समान इस सूत्र की पूर्ण मौलिकता वर्तमान में नहीं रही है । अतः मूलपाठ में कुछ संशोधन करने का प्रयत्न किया है। ॥ छठी दशा समाप्त ॥
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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