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[दशाश्रुतस्कन्ध उ०-दोसनिग्घायणा-विणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा
१. कुद्धस्स कोहं विणएत्ता भवइ, २. दुगुस्स दोसं णिगिण्हित्ता भवइ, ३. कंखियस्स कंखं छिंदित्ता भवइ, ४. आया-सुपणिहिए यावि भवइ।
से तं दोसनिग्घायणा-विणए।
आचार्य अपने शिष्यों को यह चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति सिखाकर के अपने ऋण से उऋण हो जाता है। जैसे
१. आचार-विनय, २. श्रुत-विनय, ३. विक्षेपणा-विनय, ४. दोषनिर्घातना-विनय। १. प्र०- भगवन्! यह आचार-विनय क्या है ?, उ०- आचार-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. संयम की समाचारी सिखाना। २. तप की समाचारी सिखाना। ३. गण की समाचारी सिखाना। ४. एकाकीविहार की समाचारी सिखाना।
यह आचार-विनय है। २. प्र०- भगवन्! श्रुत-विनय क्या है? उ.- श्रुत-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. मूल सूत्रों को पढ़ाना।
२. सूत्रों के अर्थ को पढ़ाना। ३. शिष्य के हित का उपदेश देना। ४. सूत्रार्थ का यथाविधि समग्र अध्यापन कराना।
यह श्रुत-विनय है। ३. प्र०- भगवन् ! विक्षेपणा-विनय क्या है? उ०- विक्षेपणा-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. जिसने संयमधर्म को पूर्ण रूप से नहीं समझा है उसे समझाना। २. संयमधर्म के ज्ञाता को ज्ञानादि गुणों से अपने समान बनाना। ३. धर्म से च्युत होने वाले शिष्य को पुनः धर्म में स्थिर करना। ४. संयमधर्म में स्थित शिष्य के हित के लिये, सुख के लिए, सामर्थ्य के लिए, मोक्ष के लिए
और भवान्तर में भी धर्म की प्राप्ति हो, इसके लिए प्रवृत्त रहना।
यह विक्षेपणा-विनय है। ४. प्र०- भगवन्! दोषनिर्घातना-विनय क्या है ? उ०- दोषनिर्घातना-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे
१. क्रुद्ध व्यक्ति के क्रोध को दूर करना। २. दुष्ट व्यक्ति के द्वेष को दूर करना। ३. आकांक्षा वाले व्यक्ति की आकांक्षा का निवारण करना। ४. अपनी आत्मा को संयम में लगाये रखना। यह दोषनिर्घातना-विनय है।
विवेचन-आठ संपदाओं से संपन्न भिक्षु को जब आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है तब वह संपूर्ण संघ का धर्मशास्ता हो जाता है। तब उसे भी संघ संरक्षण एवं संवर्धन के अनेक कर्तव्यों के उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। उनके प्रमुख उत्तरदायित्व चार प्रकार के हैं