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________________ चौथी दशा] [२५ शिष्य विनय, उपशान्ति, जितेन्द्रियता आदि श्रुत ग्रहण योग्य प्रमुख गुणों से युक्त है या नहीं तथा किस सूत्र का कितना पाठ या कितना अर्थ देने योग्य है, इस प्रकार की अनुप्रेक्षा करके मूल पाठ व अर्थ की वाचना देने वाला होना। ३. कंठस्थ करने की शक्ति और उसे स्मृति में रखने की शक्ति का क्रमशः विकास हो, इसका ध्यान रखना तथा पूर्व में वाचना दिये गये मूल पाठ का और अर्थ की स्मृति का निरीक्षण-परीक्षण करके जितना उपयुक्त हो उतना आगे पढ़ाना। ४. संक्षिप्त वाचना पद्धति से दिये गए मूल और अर्थ का परिणमन कर लेने पर शब्दार्थों के विकल्प, नय-प्रमाण, प्रश्न-उत्तर और अन्यत्र आये उन विषयों के उद्धरणों के संबंधों को समझाते हुए तथा उत्सर्ग-अपवाद की स्थितियों में उसी सूत्राधार से किस तरह उचित निर्णय लेना आदि विस्तृत व्याख्या समझाना। इन गुणों से युक्त आचार्य 'वाचनासम्पदा' से युक्त होता है। (६)मतिसम्पदा-मति का अर्थ है बुद्धि । १. औत्पत्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कार्मिकी और ४. पारिणामिकी, इन चारों प्रकार की बुद्धियों से सम्पन्न होना। __ प्रत्येक पदार्थ के सामान्य और विशेष गुणों को समझकर सही निर्णय करना। एक बार निर्णय करके समझे हुए विषय को लम्बे समय तक स्मृति में रखना। किसी भी विषय को स्पष्ट समझना, किसी के द्वारा किये गये प्रश्न का समाधान करना, गूढ वचन के आशय को शीघ्र और निःसंदेह स्वतः समझ जाना। ऐसी बुद्धि और धारणाशक्ति से सम्पन्न आचार्य 'मतिसम्पदा' युक्त होता है। (७) प्रयोगमतिसम्पदा-पक्ष-प्रतिपक्ष युक्त शास्त्रार्थ के समय श्रुत तथा बुद्धि के प्रयोग करने की कुशलता होना प्रयोगमतिसंपदा है। १. प्रतिपक्षकी योग्यता को देखकर तथा अपने सामर्थ्य को देखकर की वाद का प्रयोग करना। २. स्वयं के और प्रतिवादी के सामर्थ्य का विचार करने के साथ उस समय उपस्थित परिषद् की योग्यता, रुचि, क्षमता का भी ध्यान रखकर वाद का प्रयोग करना अर्थात् तदनुरूप चर्चा का विषय और उसका विस्तार करना। ३. उपस्थित परिषद् के सिवाय चर्चा-स्थल के क्षेत्रीय वातावरण और प्रमुख पुरुषों का विचार कर वाद का प्रयोग करना। ४. साथ में रहने वाले बाल, ग्लान, वृद्ध, नवदीक्षित, तपस्वी आदि की समाधि का ध्यान रखकर अति परिणामी, अपरिणामी, अगीतार्थ शिष्यों के हिताहित का विचार रखते हुए तथा वाद के परिणाम में लाभालाभ की तुलना करके वाद का प्रयोग करना। इन कुशलताओं से सम्पन्न आचार्य 'प्रयोगमतिसम्पदा' युक्त होता है। (८)संग्रहपरिज्ञासम्पदा-१. उपरोक्त सम्पदाओं से युक्त आचार्य में यह उत्साह होना कि जनपद में ग्रामानुग्राम विचरण करके वीतरागप्रज्ञप्त धर्म पर सर्वसाधारण की श्रद्धा सुदृढ़ करना और उन्हें धर्मानुरागी बनाना, जिससे चातुर्मास योग्य क्षेत्र सुलभ रहे। २. वहाँ के लोगों की आतिथ्य (सुपात्रदान) की भावना बढ़ाना, जिससे बाल, ग्लान, वृद्ध,
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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