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चौथी दशा]
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५. अनुक्त अर्थ को अपनी प्रतिभा से ग्रहण करना।
६. सन्देहरहित होकर अर्थ को ग्रहण करना। (२) इसी प्रकार इहामतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (३) इसी प्रकार अवायमतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (४) प्र०-भगवन्! धारणामतिसम्पदा क्या है?
उ०-धारणामतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है। जैसे१. बहुत अर्थ को धारण करना। २. अनेक प्रकार के अर्थों को धारण करना। ३. पुरानी धारणा को धारण करना। ४. कठिन से कठिन अर्थ को धारण करना। ५. किसी के अधीन न रहकर अनुकूल अर्थ को निश्चित रूप से अपनी प्रतिभा द्वारा
धारण करना।
६. ज्ञात अर्थ को सन्देहरहित होकर धारण करना। यह धारणामतिसम्पदा है। ७. प्र०- भगवन्! प्रयोगमतिसम्पदा क्या है? उ.- प्रयोगमतिसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे
१. अपनी शक्ति को जानकर वादविवाद (शास्त्रार्थ) का प्रयोग करना। २. परिषद् के भावों को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना। ३. क्षेत्र को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना। ४. वस्तु के विषय को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना।
___ यह प्रयोगमतिसम्पदा है। ८. प्र०- भगवन्! संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा क्या है? उ०-संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे
१. वर्षावास में अनेक मुनिजनों के रहने योग्य क्षेत्र का प्रतिलेखन करना। २. अनेक मुनिजनों के लिए प्रातिहारिक पीठ फलक शय्या और संस्तारक ग्रहण करना। ३. यथाकाल यथोचित कार्य को करना और कराना। ४. गुरुजनों का यथायोग्य पूजा-सत्कार करना। __यह संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा है।
विवेचन-इस दशा में आचार्य को 'गणी' कहा गया है। साधुसमुदाय को 'गण' या 'गच्छ' कहा जाता है, उस गण के जो अधिपति (स्वामी) होते हैं, उन्हें गणि या गच्छाधिपति कहा जाता है। उनके गुणों के समूह को सम्पदा कहते हैं। गणि को उन गुणों से पूर्ण होना ही चाहिए, क्योंकि बिना गुणों के वह गण की रक्षा नहीं कर सकता है और गण की रक्षा करना ही उसका प्रमुख कर्तव्य है।
शिष्य-समुदाय द्रव्य-संपदा है और ज्ञानादि गुण का समूह भाव-संपदा है। दोनों संपदाओं से युक्त व्यक्ति ही वास्तव में गणि पद को सुशोभित करता है। प्रस्तुत दशा में द्रव्य और भाव सम्पदा को ही विस्तार से आठ प्रकार की सम्पदाओं द्वारा कहा गया है।
(१) आचारसम्पदा-१. संयम की सभी क्रियाओं में योगों का स्थिर होना आवश्यक है, क्योंकि उन क्रियाओं का उचित रीति से पालन तभी हो सकता है।