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________________ [ निरयावलिकासूत्र विख्यात था। भेंट के रूप में प्रचुर धन-सम्पत्ति उसे प्राप्त होती थी। जनसमूह द्वारा प्रशंसित था। छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका आदि से परिमण्डित था। उसका आंगन लिपा-पुता था और दिवालों पर लम्बीलम्बी मालाएँ लटकी रहती थीं। वहाँ स्थान-स्थान पर गोरोचन, चन्दन आदि के थापे लगे हुए थे। काले अगर आदि की धूप की मघमघाती महक से वहाँ का वातावरण गंधवर्तिका जैसा प्रतीत होता था। नट, नर्तक, भोजक, मागध-चारण आदि यशोगायकां से व्याप्त रहता था। दूर-दूर तक के देशवासियों में उसकी कीर्ति बखानी जाती थी और बहुत से लोग वहाँ मनौती पूर्ण होने पर 'जात' देने आते थे। वे उसे अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, कल्याणकारक, मंगलरूप एवं दिव्य मान कर विशेष रूप से उपासनीय मानते थे। विशेष पर्व-त्यौहारों पर हजारों प्रकार की पूजा उपासना वहां की जाती थी। बहुत से लोग वहां आकर जय-जयकार करते हुये उसकी पूजा-अर्चना करते थे। वनखण्ड - वह गुणशिलक चैत्य चारों ओर से एक वनखण्ड से घिरा हुआ था। वृक्षों की सघनता से वह काला, काली आभा वाला, शीतल, शीतल आभा वाला, सलौना एवं सलौनी आभा वाला दिखता था। वहाँ के सघन एवं विशाल वृक्षों की शाखाओं-प्रशाखाओं के परस्पर गुंथ जाने से ऐसा रमणीक दिखता था मानों सघन मेघ घटाएँ घिरी हुई हों। अशोकवृक्ष - उस वनखंड के बीचों-बीच एक विशाल एवं रमणीय अशोकवृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कंद, शाखाओं, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था। उसका सुघड़ और विशाल तना इतना विशाल था कि अनेक मनुष्यों द्वारा भुजायें फैलाये जाने पर भी घेरा नहीं जा सकता था। उसके पत्ते एक दूसरे से सटे हुए, अधोमुख और निर्दोष थे। नवीन पत्तों, कोमल किसलयों आदि से उसका शिखर भाग सुशोभित था। तोता, मैना, तीतर, बटेर, कोयल, मयूर आदि पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। वहाँ मधुलोलुप भ्रमर-समूह मस्ती में गुनगुनाते रहते थे। उसके आस-पास में अन्यान्य वृक्ष, लताकुंज, मंडप आदि शोभायमान थे। वह अतीव तृप्तिप्रदं विपुल सुगंध को फैला रहा था। अति विशाल परिधि वाला होने से उसके नीचे अनेक रथ. डोलियाँ. पालकियाँ आदि ठहर सकती थीं। पृथ्वीशिलापट्टक - उस अशोकवृक्ष के नीचे स्कंध से सटा हुआ एक पृथ्वीशिलापट्टक रखा हुआ था। उसका वर्ण काला था और उसकी प्रभा अंजन, मेघमाला, नीलकमल, केशराशि, खंजनपक्षी, सींग के गर्भभाग, जामुन के फल अथवा अलसी के फूल जैसी थी। वह अतीव स्निग्ध था। वह अष्टकोण था और दर्पण के समान सम, सुरम्य एवं चमकदार था। उस पर ईहामृग-भेड़िया, वृषभ, अश्व, मगर, विहग (पक्षी), व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (हिरण विशेष), शरभ, कुंजर, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र-विचित्र चित्राम बने हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, रुई, मक्खन और अर्कतूल (आक की रुई) आदि के समान सुकोमल था। इस प्रकार का वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनीय मोहक और अतीव मनोहर था। १. नगर, चैत्य, अशोकवृक्ष, पृथ्वीशिलापट्टक के विस्तृत वर्णन के लिये देखिये औप. सूत्र पृष्ठ ४-१२ आ. प्र. स., ब्यावर
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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