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[महाबल
१२६ ] आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिक्कसुहाए मणाणुकुलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला संमाणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला विणीयदोहला ववगयरोगमोहभयपरित्तासा तं गब्भं सुहंसहेणं परिवहइ।
तए णं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपञ्चिन्दियसरीरं लक्खणवञ्जणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कन्तं पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया।
१६. तत्पश्चात् प्रभावती देवी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित होकर न अत्यन्त शीतल, न अतीव उष्ण, न अति तिक्त, कटुक, काषायिक, मधुर किन्तु प्रत्येक ऋतु के अनुकूल, गर्भ के लिये हितकारी, मित, पथ्य, गर्भ को पोषण करने वाले देश और काल के अनुसार आहार करती हुई, विविक्त-एकान्त में सुकोमल शैया आसन पर सोते बैठते अत्यन्त सुखद, मनोनुकूल विहार भूमि में विचरण करते हुये प्रशस्तदोहद, संपन्नदोहद, सम्मानितदोहद, सत्कारितदोहद, विछिन्नदोहद, व्यपनीतदोहद वाली होकर तथा राग, मोह, भय, परित्रास रहित होकर उस गर्भ का सुखपूर्वक पोषण करने लगी। - इस प्रकार से परिपूर्ण नौ मास और साढे सात रात्रि-दिन के बीतने पर प्रभावती देवी ने सुकुमाल हाथ-पैर वाले, निर्दोष प्ररिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले तथा लक्षण, व्यजंन और गुणों से युक्त यावत् चन्द्र के समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन, सुरूप पुत्र का प्रसव किया।
१७. तए णं तीसे पभावईए देवीए अङ्गपडियारियाओ पभावइं देविं पसूयं जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छन्ति, करयल जाव बलं रायं जएणं विजएणं वद्धान्ति, वद्धावित्ता एवं वयासी – “एवं खलु, देवाणुप्पिया! पभावईपियट्ठयाए पियं निवेदेमो, पियं ते भवउ।'
तए णं से बले राया अङ्गपडियारियाणं अन्तियं एयमलै सोच्चा निसम्म हट्ठतुटु जाव धाराहयणीव जाव रोमकूवे तासिं अङ्गपडियारियाणं मउडवजं जहामालियं ओमेयं दलयइ, सेयं रययामयं विमलसलिलिपुण्णं भिङ्गारं च गिण्हइ, गिण्हित्ता मत्थए धोवइ, धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसजेति।
१७. तत्पश्चात् प्रभावती देवी की अंगपरिचारिकाएँ प्रभावती देवी के पुत्रप्रसव को जानकर जहाँ बल राजा था, वहाँ आई। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् जय-विजय शब्दों से बल राजा को बधाई दी। फिर इस प्रकार निवेदन किया - 'देवानुप्रिय! प्रभावती देवी की प्रीति के लिये हम प्रिय (समाचार) निवेदन करती हैं। आपको प्रिय हो।'
तब बल राजा ने अंगपरिचारिकाओं से इस वृत्तान्त को सुनकर और हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट यावत् मेघधारा से सिंचित नीप-कुटज पुष्प के समान रोमांचित हो उन अंग परिचारिकाओं को मुकुट को छोड़कर शेष समस्त धारण किये हुए आभूषण उतारकर पारितोषिक रूप में दे दिए और फिर श्वेत रजतमय निर्मल पानी से भरे हुए भंगार-कलश को लिया, लेकर उनका मस्तक धोया,