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निरयावलिका : एक समीक्षात्मक अध्ययन
(प्रथम संस्करण से) जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् महावीर ने अपने आप को निहारा और सम्पूर्ण लोक को भी निहारा। उन्होंने सत्य का प्रतिपादन किया। वे सत्य के व्याख्याकार थे, कुशल प्रवचनकार थे। उन्होंने बंध, बंधहेतु, मोक्ष और मोक्षहेतु का रहस्य उद्घाटित किया। इस कारण वे तीर्थंकर कहलाये। तीर्थंकर शब्द में तीर्थ शब्द व्यवहत हुआ है। तीर्थ शब्द के अनेक अर्थों में से एक अर्थ प्रवचन है। इस दृष्टि से प्रवचन करने वाला तीर्थंकर कहलाता है। दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में छह तीर्थंकरों का उल्लेख हुआ है। आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कपिल आदि को तीर्थंकर लिखा है। सूत्रकृतांग चूर्णि में भी प्रवचनकार के अर्थ में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग हुआ है। पर यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि जैन परम्परा में सामान्य वक्ता के लिये तीर्थंकर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। विशिष्ट महापुरुष, जो उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति के धनी होते हैं, उन्हीं के लिये तीर्थंकर शब्द व्यवहृत है। तीर्थंकर के प्रवचन के आधार पर धर्म की आराधना करने वाले श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका को तीर्थ कहा जाता है। श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचन आगम के रूप में विश्रुत हैं।
· भगवान् महावीर के पावन प्रवचनों को उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने सूत्र रूप में गूंथा - जिससे आगम के दो विभाग हो गये -- सूत्रागम और अर्थागम। भगवान् का पावन उपदेश अर्थागम और उसके आधार पर की गई सूत्र रचना - सूत्रागम है। यह आगम साहित्य आचार्यों के लिये निधि बन गया, इसलिये इसका नाम गणिपिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक भाग बारह हुए, जो द्वादशाङ्गी के नाम से जाना और पहचाना जाता है। अंग और उपांग : एक चिन्तन
प्राचीनकाल से आगमों का विभाजन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में चला आ रहा है। आचार्य देववाचक ने अंगबाह्य का कालिक और उत्कालिक के रूप में विवेचन किया है। आज वर्तमान में जो उपांग साहित्य उपलब्ध है उसका समावेश अंगबाह्य में किया जा सकता है। उपांग-आगम ग्रन्थों का निर्धारण कब हुआ, इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। मूर्धन्य मनीषियों का मन्तव्य है कि जब आगम-पुरुष की कल्पना की गई तब अंगस्थानीय शास्त्रों की परिकल्पना की गई। उस समय उपांग भी अमुक-अमुक स्थानों पर प्रतिष्ठापित करने के लिये परिकल्पित किये गये।
हम पूर्व में बता चुके हैं कि अंगसाहित्य की रचना गणधरों ने की है। उनके स्वतंत्र विषय हैं । उपांग साहित्य के रचयिता स्थविर हैं। उनके अपने विषय हैं। अतः विषय, वस्तुविवेचन आदि की दृष्टि से अंग,
१. (क) परं तत्र तीर्थकर :
(ख) वयं तीर्थकरा इति
- सूत्रकृतांग चूर्णि पृष्ठ ४७ - वही - पृष्ठ ३२२
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