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तृतीय अध्ययन
११. उक्खेवओ - जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स जाव अयमढे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते, अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू!
११. जम्बू स्वामी ने आर्य सुधर्मा स्वामी से पूछा – भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का यह आशय प्ररूपित किया है तो श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का क्या भाव बताया है -
आर्य सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया - आयुष्मन् जम्बू! वह इस प्रकार है - . १२. रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कवडिंसए विमाणे सुक्कंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहेव चन्दो तहेव आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। 'भंते' त्ति। कूडागारसाला। पुव्वभवपुच्छा।
१२. राजगृह नगर था। गुणशिलक नाम का चैत्य था। वहाँ का राजा श्रेणिक था। स्वामी (श्रमण भगवान् महावीर) का पदार्पण हुआ। धर्मदेशना श्रवण करने के लिये परिषद् निकली।
उस काल और उस समय में शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमान में शुक्र सिंहासन पर बैठा था। चार हजार सामानिक देवों आदि के साथ नृत्य गीत आदि दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचरण कर रहा था आदि। वह चन्द्र के समान भगवान् के समवसरण में आया। उस शुक्राधिपति ने पूर्ववत् नृत्यविधि का प्रदर्शन किया और नृत्यविधि दिखा कर वापिस लौट गया।
तत्पश्चात् 'भदन्त!' इस प्रकार से सम्बोधन कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से उसकी दैविक ऋद्धि आदि के अन्तर्लीन होने के संबंध में पूछा। भगवान् ने कूटाकार शाला के दृष्टान्त द्वारा गौतम का समाधान किया। गौतम स्वामी ने पुनः उसके पूर्वभव के संबंध में पूछा। शुक्र महाग्रह का पूर्वभव
१३. 'एवं खलु गोयमा'। तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था। तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवसइ। अड्ढे जाव अपरिभूए रिउव्वेय-जउव्वेयसामवेयाथव्वाणं इइहासपञ्चमाणं निघण्टुछट्ठाणं सङ्गोवङ्गाणं सरहस्साणं एयं परिजुत्ताणं धारए सारए पारए सडङ्गवी सद्वितन्तविसारए संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छन्दे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेसु य