________________
द्वारा ऋषभदेव की स्तुति की गई है। कहीं पर जाज्वल्यमान अग्नि के रूप में,, कही पर परमेश्वर के रूप में, कहीं शिव के रूप में, कहीं हिरण्यगर्भ के रूप में, कहीं ब्रह्मा ५ के रूप में, कहीं विष्णु के रूप में, कहीं वातरसना श्रमण " के रूप में, कहीं केशी के रूप में स्तुति प्राप्त है।
___ श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव का बहुत विस्तार से वर्णन है। उनके माता-पिता के नाम, सुपुत्रों का उल्लेख, उनकी ज्ञानसाधना, धार्मिक और सामाजिक नीतियों का प्रवर्तन और भरत के अनासक्त योग को चित्रित किया गया है तथा अन्य पुराणों में भी ऋषभदेव के जीवनप्रसंग अथवा उनके नाम का उल्लेख हुआ है। बौद्धपरम्परा के महनीय ग्रन्थ धम्मपद १० में भी ऋषभ और महावीर का एक साथ उल्लेख हुआ है। उसमें ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ और धीर प्रतिपादित किया है। अन्य मनीषियों ने उन्हें आदिपुरुष मानकर उनका वर्णन किया है। विस्तारभय से यह सभी वर्णन यहाँ न देकर जिज्ञासुओं को प्रेरित करते हैं कि वे लेखक का 'ऋषभदेव : एक परिशीलन' ग्रन्थ तथा धर्मकथानुयोग की प्रस्तावना का अवलोकन करें। अन्य आरक वर्णन
__ भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् दुष्षमसुषमा नामक आरक में तेईस अन्य तीर्थंकर होते हैं और सात ही उस काल में ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव आदि श्लाघनीय पुरुष भी समुत्पन्न होते हैं । पर उनका वर्णन प्रस्तुत आगम में नहीं आया है। संक्षेप में ही इन आरकों का वर्णन किया गया है । छठे आरक का वर्णन कुछ विस्तार से हुआ है। छठे आरक में प्रकृति के प्रकोप से जन-जीवन अत्यन्त दुःखी हो जायेगा। सर्वत्र हाहाकार मच जायेगा. मानव के अन्तर्मानस में स्नेह-सद्भावना के अभाव में छल-छद्म का प्राधान्य होगा। उनका जीवन अमर्यादित होगा तथा उनका शरीर विविध व्याधियों से संत्रस्त होगा। गंगा और सिन्धु जो महानदियाँ हैं, वे नदियाँ भी सूख जायेंगी।
له سه ×
१. अथर्ववेद, ९।४।३, ७, १८ २. अथर्ववेद, ९।४।७
प्रभासपुराण, ४९ (क) ऋग्वेद १० । १२१ । १ (ख) तैत्तिरीयारण्यक भाष्य सायणाचार्य ५+५।१।२. (ग) महाभारत, शान्तिपर्व ३४९ (घ) महापुराण, १२॥ ९५ ऋषभदेव : एक परिशीलन, द्वि. संस्क., पृ. ४९
सहस्रनाम ब्रह्मशतकम्, श्लोक १००-१०२ ७. (क) ऋग्वेद, १०।१३६।२
(ख) तैत्तिरियारण्यक, २०७।१, पृ. १३७ (ग) बृहदारण्यकोपनिषद्, ४।३।२२ (घ) एन्शियट इण्टिया एज डिस्क्राइब्ड बाय मैगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकत्ता, १९१६, पृ. ९७-९८ (क) पद्मपुराण, ३।२८८ (ख) हरिवंशपुराण ९। २०४
(ग) ऋग्वेद १० । १३६ । १ ९. श्रीमद्भागवत, १।३।१३, २।७।१०; ५।३। २०, ५।४।५; ५।४।८; ५।४।९-१३; ५।४।२०; ५।५।१६;
५५।१९; ५।५।२८; ५।१४। ४२-४४; ५।१५।१ १०. उसभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं । अनेजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥
-धम्मपद ४२२
[३३]