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________________ उस समय के मानवों को षट्कर्मजीवानाम् कहा गया है। ' महापुराण के अनुसार आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिये ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन तीन वर्गों की स्थापना की। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, ' त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ' के अनुसार ब्राह्मणवर्ण की स्थापना ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत ने की। ऋग्वेदसंहिता में वर्णों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। वहाँ पर ब्राह्मण को मुख, क्षत्रिय को बाहु, वैश्य को उर और शूद्र कौ पैर बताया है। यह लाक्षणिक वर्णन समाजरूप विराट शरीर के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीमद्भागवत " आदि में भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत आगम में जब भगवान् ऋषभदेव प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, तब वे चार मुष्ठि लोच करते हैं, जबकि अन्य सभी तीर्थंकरों के वर्णन में पंचमुष्ठि लोच का उल्लेख है। टीकाकार ने विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जिस समय भगवान् ऋषभदेव लोच कर रहे थे, उस समय स्वर्ण के समान चमचमाती हुई केशराशि को निहार कर इन्द्र ने भगवान् ऋषभदेव से प्रार्थना की, जिससे भगवान् ऋषभदेव नें इन्द्र की प्रार्थना से एक मुष्टि केश इसी तरह रहने दिये। केश रखने से वे केशी या केसरियाजी के नाम से विश्रुत हुए। पद्मपुराण हरिवंशपुराण १० में ऋषभदेव की जटाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में ऋषभ की स्तुति केशी के रूप में की गई। वहाँ बताया है कि केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है और केशी विश्व के समस्त तत्त्वों का दर्शन कराता है और वह प्रकाशमान ज्ञानज्योति है। - भगवान् ऋषभदेव ने चार हजार उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय वंश के व्यक्तियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। पर उन चार हजार व्यक्तियों को दीक्षा स्वयं भगवान ने दी. ऐसा उल्लेख नहीं है। आवश्यकनिर्यक्तिकार १२ ने इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट किया है कि उन चार हजार व्यक्तियों में भगवान् ऋषभदेव का अनुसरण किया। भगवान् की देखादेखी उन चार हजार व्यक्तियों ने स्वयं केशलुञ्चन आदि क्रियाएं की थीं। प्रस्तुत आगम में यह भी उल्लेख नहीं है कि भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा के पश्चात् कब आहार ग्रहण किया ? समवायांग में यह स्पष्ट उल्लेख है कि 'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण'। १३ इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव को दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने पर भिक्षा मिली थी। किस तिथि को भिक्षा प्राप्त हुई थी, इसका » 3g . आदिपुराण ३९ । १४३ महापुराण १८३ । १६ । ३६२ आवश्यकनियुक्ति पृ. २३५।१ आवश्यकचूर्णि २१२-२१४ त्रिषष्टी. १।६ ६. ऋग्वेदसंहिता १०।९०; ११, १२ श्रीमद्भागवत ११ । १७ । १३, द्वितीय भाग पृ.८०९ . ८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २, सूत्र ३० पद्मपुराण ३।८८ १०. हरिवंशपुराण ९ । २०४ ११. ऋग्वेद १०।१३६।१ १२. आवश्यकनियुक्ति गाथा ३३७ १३. समवायांगसूत्र १५७ [३१]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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