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चारों ओर हो गया था। सूर्य की तप्त किरणें उस वाष्प का भेदन न कर सकीं और यह वाष्प हिम और तुषार के रूप में बदल गया। चन्द्राभ नामक कुलकर ने मानवों को आश्वस्त करते हुए कहा कि सूर्य की किरणें ही इस हिम की औषध हैं।' हिमवाष्प अन्त में बादलों के रूप में परिणत होकर बरसने लगा। भोगभूमि के मानवों ने प्रथम बार वर्षा देखी। वर्षा से ही कल-कल, छल-छल करते नदी-नाले प्रवाहित होने लगे। यह भोगभूमि और कर्मभूमि के सन्धिकाल की बात है । इन महान् प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रवाह प्राकृतिक पर्यावरण में रहने वाले जीवों पर आत्यंतिक रूप से हुआ। इन प्रवाहों के फलस्वरूप बाह्य रहन-सहन में भी अन्तर आया।
तिलोयपत्ति ग्रन्थ में लिखा है कि सातवें कुलकर तक माता-पिता अपनी संतान का मुख- दर्शन किये बिना ही मृत्यु को वरण कर लेते थे। किन्तु आठवें कुलकर के समय शिशु-युग्म के जन्म लेने के पश्चात् उसके माता-पिता की मृत्यु नहीं हुई । वे सन्तति का मुख देखना मृत्यु का वरण मानते थे । आठवें कुलकर ने बताया कि यह तुम्हारी ही सन्तान है । भयभीत होने की आवश्यकता नहीं, सन्तान का मुख निहारो और उसके बाद जब भी मृत्यु आये, हर्ष से उसे स्वीकार करो। लोग बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने कुलकर का अभिवादन किया । यशस्वी नामक कुलकर ने शिशुओं के नामकरण की प्रथा प्रारम्भ की और अभिचन्द्र नामक दसवें कुलकर ने बालकों के मनोरंजनार्थ खेल-खिलौनों का आविष्कार किया । तेरहवें कुलकर ने जरायु को पृथक् करने का उपदेश दिया और कहा कि जन्मजात शिशु का जरायु हटा दो जिससे शिशु को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं होगा। चौदहवें कुलकर नें सन्तान की नाभि-नाल को पृथक् करने का सन्देश दिया। इस प्रकार इन कुलकरों ने समय-समय पर मानवों को योग्य मार्गदर्शन देकर उनके जीवन को व्यवस्थित किया। प्रस्तुत आगम में तो कुलकरों के नाम और उनके द्वारा की गई दण्डनीति, हकारनीति, मकारनीति और धिक्कारनीति का ही निरूपण है। उपर्युक्त जो विवरण हमने दिया है, वह दिगम्बरपरम्परा के तिलोयपण्णत्ति, जिनसेनरचित महापुराण तथा हरिवंशपुराण प्रभृति ग्रन्थों में आया है।
स्थानांगसूत्र की वृत्ति में आचार्य अभयदेव ने लिखा है कि कुल की व्यवस्था का सञ्चालन करने वाला जो प्रकृष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति होता था, वह कुलकर कहलाता था । आचार्य जिनसेन ने कुलकर की परिभाषा करते हुए लिखा है कि प्रजा के जीवन-उपायों के ज्ञाता मनु और आर्य मनुष्यों को कुल की तरह एक रहने का जिन्होंने उपदेश दिया, वे कुलकर कहलाये । युग की आदि में होने से वे युगादि पुरुष भी कहलाये । ५
तृतीय आरे के एक पल्योपम का आठवाँ भाग जब अवशेष रहता है, उस समय भरतक्षेत्र में कुलकर पैदा होते हैं । पउमचरियं ' हरिवंशपुराण ' और सिद्धान्तसंग्रह ' में चौदह कुलकरों के नाम मिलते हैं : ६ १. सुमति, २ .
१.
तिलोयपण्णत्ति, ४ । ४७५-४८१
२. गब्भादौ जुगलेंसु णिक्कंतेसुं मरंति तक्कालं ।। – तिलोयपण्णत्ति ४ । ३७५ - ३७६
३.
४.
६.
७.
८.
तिलोयपण्णत्ति, ४ । ४६५-४७३
स्थानांगवृत्ति, ७६७ । ५१८ । १
महापुराण, आदिपुराण, ६ । २११ । २१२
पउमचरियं, ३।५०-५५
हरिवंशपुराण, सर्ग ७, श्लोक १२४-१७०
सिद्धान्तसंग्रह, पृष्ठ १८
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