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________________ क्रम । द्वितीय वक्षस्कार में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने कहा कि भरत क्षेत्र में काल दो प्रकार का है और वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम से विश्रुत है। दोनों का कालमान बीस कोडाकोडी सागरोपम है। सागर या सागरोपम मानव को ज्ञात समस्त संख्याओं से अधिक काल वाले कालखण्ड का उपमा द्वारा प्रदर्शित परिमाण है। वैदिक दृष्टि से चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का एक कल्प होता है। इस कल्प में एक हजार चतुर्युग होते हैं। पुराणों में इतना काल ब्रह्मा के एक दिन या रात्रि के बराबर माना है। जैन दृष्टि से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के छह-छह उपविभाग होते हैं। वे इस प्रकार हैं अवसर्पिणी काल विस्तार ..१. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर सुषमा तीन कोटाकोटि सागर सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर दुःषमा-सुषमा एक कोटाकोटि सागर में ४२००० वर्ष न्यून दुःषमा २१००० वर्ष दुःषमा-दुःषमा २१००० वर्ष उत्सर्पिणी काल विस्तार दुःषमा-दुःषमा २१००० वर्ष २. दुःषमा २१००० वर्ष ३. दुःषमा-सुषमा एक कोटाकोटि सागर में ४२००० वर्ष न्यून ४. सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर ५. सुषमा तीन कोटाकोटि सागर ६. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक इन दोनों का काल बीस कोडाकोडी सागरोपम है। यह भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र में रहट-घट न्याय ' से अथवा शुक्ल-कृष्ण पक्ष के समान एकान्तर क्रम से सदा चलता रहता है। आगमकार ने अवसर्पिणी काल के सुषमा-सुषमा नामक प्रथम आरे का विस्तार से निरूपण किया है। उस काल में मानव का जीवन अत्यन्त सखी था। उस पर प्रकति देवी की अपार कपा थी। उसकी इच्छाएं स्वल्प थीं और वे स्वल्प इच्छाएं कल्पवृक्षों के माध्यम से पूर्ण हो जाती थीं। चारों ओर सुख का सागर ठाठे मार रहा था। वे मानव पूर्ण स्वस्थ और प्रसन्न थे। उस युग में पृथ्वी सर्वरसा थी। मानव तीन दिन में एक बार आहार करता था और वह आहार क्रम १. अवसप्पणि उस्सप्पणि कालच्चिय रहटघटियणाए । होंति अणंताणंता भरहेरावद खिदिम्मि पुढं ॥ -तिलोयपण्णत्ति ४।१६१४ २. यथा शुक्लं च कृष्णं च पक्षद्वयमनन्तरम् । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरेवं क्रम समुद्भवः ॥ -पद्मपुराण ३।७३ [२५]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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