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तृतीय वक्षस्कार]
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से सुरचित वेदिकाओं, तोरणों एवं सुन्दर पुतलियों से सुसज्जित था। वह सुश्लिष्ट-सुन्दर, सुहावने विशिष्ट, रमणीय आकारयुक्त, प्रशस्त, उज्ज्वल वैडूर्यमणि निर्मित, स्तंभों पर संस्थित था, उसका भूमिभाग नाना प्रकार की देदीप्यमान मणियों से खचित-जड़ा हुआ, सुविभक्त एवं अत्यधिक समतल था। वह ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग-घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, विहग-पक्षी, व्यालक-सांप, किन्नर, रुरु-कस्तूरीमृग, शलभ-अष्टापद, चमर-चँवरी गाय, कुंजर-हाथी, वनलता एवं पद्मलता आदि के विविध चित्रों से युक्त था। उस पर स्वर्ण, मणि तथा रत्न रचित स्तूप बने थे। उसका उच्च धवल शिखर अनेक प्रकार की घंटियों एवं पांच रंग की पताकाओं से परिमंडित था-विभूषित था। वह किरणों की ज्यों अपने से निकलती आभा से देदीप्यमान था। उसका आंगन गोबर से लिपा था तथा दीवारें चूने से-कलई से पुती थीं। उस पर ताजे गोशीर्ष तथा लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों एवं हथेली सहित हाथ के थापे लगे थे। उसमें चन्दन चर्चित कलश रखे थे। उसका प्रत्येक द्वार तोरणों एवं कलशों से सुसज्जित था। उसकी दीवारों पर जमीन से ऊपर तक के भाग को छूती हुई बड़ी-बड़ी गोल तथा लम्बी पुष्पमालाएँ लगी थीं। पांच रंगों के सरस-ताजे, सुरभित पुष्पों से वह सजा था। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोभान एवं धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण उत्कृष्ट सुरभिमय बना था, जिससे सुगन्धित धुएं की प्रचुरता के कारण वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले बनते दिखाई देते थे।
अभिषेकमण्डप के ठीक बीच में एक विशाल अभिषेकपीठ की रचना की। वह अभिषेकपीठ स्वच्छ-रजरहित तथा श्लक्षण-सूक्ष्म पुद्गलों से बना होने से मुलायम था। उस अभिषेकपीठ की तीन दिशाओं में उन्होंने तीन-तीन सोपानमार्गों की रचना की। (उन्हें ध्वजाओं, छत्रों तथा वस्त्रों से सजाया सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में उन्होंने एक विशाल सिंहासन का निर्माण किया।
सिंहासन का वर्णन विजयदेव के सिंहासन जैसा है।
यों उन देवताओं ने अभिषेकमण्डप की रचना की। अभिषेकमण्डप की रचना कर वे जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। उसे इससे अवगत कराया।
राजा भरत उन आभियोगिक देवों से यह सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर यों कहा-'देवानुप्रिय! शीघ्र ही हस्तिरत्न को तैयार करो। हस्तिरत्न को तैयार कर घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजाओ। ऐसा कर मुझे अवगत कराओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उसकी सूचना दी।
फिर राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नानादि से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुआ। राजा के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर आठ मंगल-प्रतीक, जिनका वर्णन विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर आया है, राजा के आगे-आगे रवाना किये गये। राजा के विनीता राजधानी से अभिनिष्क्रमण का वर्णन उसके विनीता में प्रवेश के वर्णन के समान है।