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________________ १३४] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र को बुलाया। उसे बुलाकर कहा-'देवानुप्रिय ! उन्मग्नजला और निमग्नजला महानदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण करो, जो सैकड़ों खंभों पर सन्निविष्ट हों-भली-भाँति टिके हों, अचल हों, अकम्प हों-सुदृढ़ हों, कवच की ज्यों अभेद्य हों-जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले–टूटनेवाले न हों, जिसके ऊपर दोनों ओर दीवारें बनी हों, जिससे उन पर चलने वाले लोगों को चलने में आलम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय हों। मेरे आदेशानुरूप यह कार्य परिसम्पन्न कर मुझे शीघ्र सूचित करो।' राज भरत द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पी अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट एवं आनन्दित हुआ। उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। राजाज्ञा स्वीकार कर उसने शीघ्र ही उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक नदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण कर दिया, जो सैकड़ों खंभों पर भली भांति टिके थे (अचल थे, अकम्प थे, कवच की ज्यों अभेद्य थे अथवा जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले–टूटने वाले नहीं थे, जिनके ऊपर दोनों ओर दीवारें बनी थीं, जिससे उन पर चलने वालों को चलने में आलम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय थे)। ऐसे पुलों की रचना कर वह शिल्पकार जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। वहाँ आकर राजा को अवगत कराया कि उनके आदेशानुरूप पुल-निर्माण हो गया है। तत्पश्चात् राजा भरत अपनी समग्र सेना के साथ उन पुलों द्वारा, जो सैकड़ों खंभों पर भली भांति टिके थे (अचल थे, अकम्प थे, कवच की ज्यों अभेद्य थे अथवा जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले-टूटने वाले नहीं थे, जिनके ऊपर दोनों ओर दीवारें बनी थीं, जिससे उन पर चलने वालों को चलने में आलम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय थे), उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक नदियों को पार किया। यों ज्योंही उसने नदियां पार की, तमिस्रा गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट क्रोञ्च पक्षी की तरह आवाज करते हुए सरसराहट के साथ अपने आप अपने स्थान से सरक गये-खुल गये। आपात किरातों से संग्राम ७२. तेणंकालेणं तेणं समएणं उत्तरड्डभरहे वासे बहवे आवाडाणामं चिलाया परिवसंति, अड्डा दित्ता वित्ता विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ना बहुधणबहुजायरूवरयया आओगपओगसंपउत्ता विच्छड्डिअपउरभत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूआ बहुजणस्स अपरिभूआ सूरा वीरा विक्कंता विच्छिण्णविउलबलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था। तएणंतेसिमावाडचिलायाणंअण्णया कयाई विसयंसि बहूइं उप्पाइअसयाइं पाउब्भवित्था, तंजहा-अकाले गज्जिअं, अकाले विज्जुआ, अकाले पायवा पुप्फंति, अभिक्खणं २ आगासे देवयाओणच्चंति। तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहई उप्पाइअसयाई पाउब्भूयाई पासंति पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति २त्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अम्हं विसयंसि बहूइं उप्पाइअसयाइं पाउब्भूआईतंजहा-अकाले गज्जिअं,अकाले विजुआ,अकाले पायवा पुप्फंति, अभिक्खणं २ आगासे देवायाओ णच्चंति, तंणं णज्जइ णं देवाणुप्पिआ ! अम्हं विसयस्स के
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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