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________________ ११०] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा। देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है। अतः अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती मागधतीर्थ के अधिष्ठातृ देवकुमारों के लिए यह उचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए मैं भी जाउँ, राजा को उपहार भेंट करूं।' यों विचार कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक-कंकण-कड़े, त्रुटितभुजबन्ध, वस्त्र, अन्यान्य विविध अलंकार, भरत के नाम से अंकित बाण और मागध तीर्थ का जल लिया। इन्हें लेकर वह उत्कृष्ट, त्वरित वेगयुक्त, सिंह की गति की ज्यों प्रबल, शीघ्रतायुक्त, तीव्रतायुक्त, दिव्य देवगति से चलता हुआ जहाँ राजा भरत था, वहाँ आया। वहाँ आकर, छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहने हुए, आकाश से संस्थित होते हुए उसने अपने जुड़े हुए दोनों हाथों से मस्तक को छूकर अंजलिपूर्वक राजा भरत को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया-उसे बधाई दी और कहा-'आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र भली-भांति जीत लिया है। मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान-परितोष एवं हर्षपूर्वक उपहत भेंट स्वीकार करें। यों कह कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक (त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, भरत के नाम से अंकित बाण) और मागध तीर्थ का जल भेंट किया। राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया। स्वीकार कर मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार सम्मान कर उसे विदा किया। फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा। रथ मोड़कर वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवणसमुद्र से वापस लौटा। जहाँ उसका सैन्य-शिविर-छावनी थी, तद्गत बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ के नीचे उतरा, जहाँ स्नानघर था, गया। स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। उज्ज्वल महामेघ से निकलते हुए चन्द्रसदृश प्रियदर्शन-सुन्दर दिखाई देने वाला राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ भोजनमण्डप था वहाँ आया। भोजनमण्डप में आकर सुखासन से बैठा, तेले का पारण किया। तेले का पारणा कर वह भोजनमण्डप से बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया। आकर पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर आसीन हुआ। सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें कहा-देवानुप्रियो ! मागधतीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो। उस बीच कोई भी क्रयविक्रय सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति पर प्रति वर्ष लिया जाने वाल राज्य-कर आदि न लिये जाएं, यह उद्घोषित करो। राजा भरत द्वारा यों आज्ञप्त होकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही किया। वैसा कर वे राजा के पास आये और उसे यथावत् निवेदित किया। तत्पश्चात् राजा भरत का दिव्य चक्ररत्न मागधतीर्थकुमार देव के विजय के उपलक्ष में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर शस्त्रागार से प्रतिनिष्क्रान्त हुआ-बाहर निकला। उस चक्ररत्न का अरक-निवेश-स्थान-आरों का जोड़ वज्रमय था-हीरों से जड़ा था। आरे लाल रत्नों से युक्त थे। उसकी
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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