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________________ १०८] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आणत्तीकिंकरे, अहण्णं देवाणुप्पिआणं पुरथिमिल्ले अंतवाले, तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ! ममं इमेआरूवं पीइदाणं तिकटु हारं मउडं कुंडलाणि अकडगाणिअ(तुडिआणि अवत्थाणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं) मागहतित्थोदगं च उवणेइ। तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ त्ता मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। तए णं से भरहे राया रहं परावत्तेइ परावत्तेता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ पच्चुतरित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ २ त्ता रहाओ पच्चोरुहति २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता जाव' ससिव्व पिअदंसणे णरवई मजणघराओ पडिणिक्खइ २ त्ता जेणेव भोअणमंडवे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ २ त्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्टाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्तासीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ २ त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उस्सुक्कं उक्करं जाव' मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिअंमहामहिमं करेइ २ त्ता मम एअमाणत्तिअंपच्चप्पिण्णह।'तएणं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीओ हट्ट जाव करेंति २ त्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति। तए णं से दिव्वे चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयारए जंबूणयणेमीए णाणामणिखुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणंदिघोसे सखिंखिणीए दिव्वे तरुणरविमंडलणिभे णाणमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्ते सव्वोउअसुरभिकुसुमआसत्तमल्लदामेअंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसहसण्णिणादेणं पूरेते चेव अंबरतलं णामेण य सुदंसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्थाभिमुहे पयाए यावि होत्था। [५८] तत्पश्चात् राजा भरत चातुर्घट-चार घंटे वाले-अश्वरथ पर सवार हुआ। वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था। हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था। उस के द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो। उसने पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए, मागध तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। १. देखें सूत्र ४५ ३. देखें सूत्र ४४ २. देखें सूत्र ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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