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________________ आगम अंगबाह्य कहे जाते हैं । यद्यपि अंगबाह्यों के कथ्य अंगों के अनुरूप होते हैं विरुद्ध नहीं होते, किन्तु प्रवाह परम्परया वे तीर्थंकर-भाषित से सीधे सम्बद्ध नहीं हैं, स्थविररचित हैं। इन अंगबाह्यों में बारह ऐसे हैं, जिनकी उपांग संज्ञा है। वे इस प्रकार हैं १. औपपातिक, २. राजप्रश्नीय, ३. जीवाभिगम, ४. प्रज्ञापना, ५. सूर्यप्रज्ञप्ति, ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. निरयावलिका अथवा कल्पिका, ९. कल्पावतंसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचूला तथा १२. वृष्णिदशा। प्रत्येक अंग का एक उपांग होता है। अंग और उपांग में आनुरूप्य हो, यह वांछनीय है। इसके अनुसार अंग-आगमों तथा उपांग-आगमों में विषय-सादृश्य होना चाहिए। उपांग एक प्रकार से अंगों के पूरक होने चाहिए, किन्तु अंगों एवं उपांगों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्रतीत होता है, ऐसी स्थिति नहीं है। उनमें विषयवस्तु, विवेचन, विश्लेषण आदि की पारस्परिक संगति नहीं है, उदाहरणार्थ आचारांग प्रथम अंग है, औपपातिक प्रथम उपांग है। अंगोपांगात्मक दृष्टि से यह अपेक्षित है, विषयाकलन, प्रतिपादन आदि के रूप में उनमें साम्य हो, औपपातिक आचारांग का पूरक हो, किन्तु ऐसा नहीं है। यही स्थिति लगभग प्रत्येक अंग एवं उपांग के बीच है। यो उपांग-परिकल्पना में तत्त्वतः वैसा कोई आधार प्राप्त नहीं होता, जिससे इसका सार्थक्य फलित हो। . वेद : अंग-उपांग .वेदों के रहस्य, आशय, तद्गत तत्त्व-दर्शन सम्यक् स्वायत्तता करने–अभिज्ञात करने की दृष्टि से वहाँ अंगों एवं उपांगों का उपपादन है। वेद पुरुष की कल्पना की गई है। कहा गया है छन्द-वेद के पाद-चरण या पैर हैं, कल्प-याज्ञिक विधि-विधानों, प्रयोगों के प्रतिपादक ग्रन्थ उसके हाथ हैं, ज्योतिष-नेत्र हैं, निरुक्त-व्युत्पत्ति शास्त्र कान हैं, शिक्षा-वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, उदात्त-अनुदात्त स्वरित के रूप में स्वर प्रयोग, सन्धि प्रयोग आदि के निरूपक ग्रन्थ घ्राण-नासिका हैं, व्याकरण-उसका मुख है। अंग सहित वेदों का अध्ययन करने से अध्येता ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है। कहने का अभिप्राय है, इन विषयों के सम्यक् अध्ययन के बिना वेद का अर्थ, रहस्य, आशय अधिगत नहीं हो सकता। वेदों के आशय को विशेष स्पष्ट और सुगम करने हेतु अंगों के साथ-साथ वेद के उपांगों की भी कल्पना की गई। पराण. न्याय. मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों का उपांगों के रूप में स्वीकरण हआ है। उपवेद वैदिक वाङ्मय में ऐसा उपलब्ध है, वहाँ ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के समकक्ष चार उपवेद भी स्वीकार किये गये हैं। वे क्रमशः आयुर्वेद, गान्धर्ववेद-संगीतशास्त्र, धनुर्वेद-आयुधविद्या तथा अर्थशास्त्रराजनीतिविज्ञान के रूप में है। विषय साम्य की दृष्टि से वेदों एवं उपवेदों पर यदि चिन्तन किया जाए तो सामवेद के साथ गान्धर्ववेद का तो यत्किंचित् सांगत्य सिद्ध होता है, किन्तु ऋग्वेद के साथ आयुर्वेद, यजुर्वेद के साथ धनुर्वेद तथा अथर्ववेद के साथ अर्थशास्त्र की कोई ऐसी संगति प्रतीत नहीं होती, जिससे इनका "उप" उपसर्ग से गम्यमान सामीप्य सिद्ध हो [१२]
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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