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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [७१ तं गच्छामि णं अहंपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाण-महिमं करेमित्ति कटु वंदइ, णमंसद वंदित्ता, णमंसित्ता चउरासीईए सामाणिअ-साहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं, चउहिं लोगपालेहिं, (अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहि, सत्तहिं अणीएहिं,) चउहिं चउरासीईहिं आयरक्खदेव-साहस्सीहिं, अण्णेहिं अबहूहिं सोहम्म-कम्प-वासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि, देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे ताए उक्किट्ठाए, (तुरिआए, चवलाए, चंडाए, जयणाए, उद्धआए, सिग्याए, दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे)तिरिअमसंखेज्जाणंदीवसमुदाणं मझमझेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे,णिराणंदे,अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयर-सरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता णच्चासण्णे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे, (णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे,) पज्जुवासइ। [४१] जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, बृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत्त) तथा सर्वदुःख-विरहित हुए, उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र का आसन चलित हुआ। देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलित देखा, अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर भगवान् तीर्थंकर को देखा। देखकर वह यों बोला-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में कौशलिक, अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अत: अतीत, वर्तमान, अनागत-भावी देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत-व्यवहार है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाणमहोत्सव मनाएं। इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण-महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ। यों सोचकर देवेन्द्र ने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दननमस्कार कर वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंशक-गुरुस्थानीय देवों, परिवारोपेत अपनी आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों दिशाओं के चौरासी-चौरासी हजार आत्मरक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं देवियों से संपरिवृत, उत्कृष्ट-आकाशगति में सर्वोत्तम, त्वरित-मानसिक उत्सुकता के कारण चपल, चंड-क्रोधाविष्ट की ज्यों अपरिश्रान्त, जवन-परमोत्कृष्ट वेग युक्त, उद्धत-दिगंतव्यापी रज की ज्यों अत्यधिक तीव्र, शीघ्र तथा दिव्य-देवोचित गति से चलता हुआ तिर्यक्-लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत और जहाँ भगवान् तीर्थंकर का शरीर था, वहाँ आया। उसने विमन-उदास, निरानन्द-आनन्द रहित, अश्रुपूर्णनयन-आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के शरीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर, न अधिक निकट न अधिक दूर स्थित हो, (नमस्कार किया, विनयपूर्वक हाथ जोड़े,) पर्युपासना की। ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे, देवराया, उत्तरद्धलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाण सयसहस्साहिवई,सूलपाणी, वसहवाहणे, सुरिंदे, अयरंबरवरवत्थधरे,(आलइअमालमउडे णवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगल्ले, महीडीए, महज्जुईए, महाबले, महायसे, महाणुभावे,महासोक्खे,भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरे ईसाणकप्पे ईसाणवडेंसए विमाणे सुहम्माए सभाए ईसाणंसि सिंहासणंसि,सेणं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं असीईए सामाणिअसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं,
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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