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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [५७ की हकार नामक दंड-नीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य हकार-"हा, यह क्या किया" इतने कथन मात्र रूप दंड से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित-विशेष रूप से लज्जित, व्यर्द्ध-अतिशय लज्जित, भीतियुक्त, तूष्णीक-नि:शब्दचुप तथा विनयावनत हो जाते हैं। उनमें से छठे क्षेमंधर, सातवें विमलवाहन, आठवें चक्षुष्मान्, नौवें यशस्वान् तथा दशवें अभिचन्द्रइन पाँच कुलकरों की मकार नामक दण्डनीति होती हैं। वे (उस समय के) मनुष्य मकार-'मा कुरु'-ऐसा मत करो-इस कथन रूप दण्ड से (लज्जित, विलज्जित, व्यर्द्ध, भीत, तूष्णीक तथा विनयावनत) हो जाते हैं। उनमें से ग्यारहवें, चन्द्राभ, बारहवें, प्रसेनजित, तेरहवें मरुदेव, चौदहवें, नाभि तथा पन्द्रहवें ऋषभइन पाँच कुलकरों की धिक्कार नामक नीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य 'धिक्कार'-इस कर्म के लिए तुम्हें धिक्कार है, इतने कथनमात्र रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं। - विवेचन-हकार, मकार, एवं धिक्कार, इन तीन दण्डनीतियों के कथन से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे काल व्यतीत होता जाता है, वैसे-वैसे मनुष्यों की मनोवृत्ति में परिवर्तन होता जाता है और अधिकाधिक कठोर दण्ड की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रथम तीर्थंकर भ० ऋषभ : गृहवास : प्रव्रज्या ____३७. णाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारिआए कुच्छिंसि एत्थ णं उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थगरे, पढमधम्मवरचाउरंत-चक्कवट्टी समुप्पग्जित्था। तए णं उसभे अरहा कोसलिए वीसं पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसइ, वसित्ता तेवढेि पुव्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ।तेवट्टि पुव्वसयसहस्साइं महारायवासमझे वसमाणे लेहाइआओ, गणिअप्पहाणओ, सउणरुअपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ चोसर्टि महिलागुणे सिप्पसयं चकम्माणं तिण्णिवि पयाहिआए उवदिसइ। उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ।अभिसिंचित्ता तेसीइंपुव्वसयसहस्साइं महारायवासमझे वसइ।वसित्ताजे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्सणं चित्तबहुलस्स णवमीपक्खेणं दिवस्स पच्छिमे भागे चइत्ता हिरण्णं, चइत्ता सुवण्णं चइत्ता कोसं, कोट्ठागारं, चइत्ता बलं, चइत्ता वाहणं, चइत्ता पुरं, चइत्ताअंतेउरं, चइत्ता विउलघणकणगरयणमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावइज्जं विच्छड्डियित्ता, विगोवइत्ता, दायं दाइआणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिअ-चक्किअ-णंगलिअ-मुहमंगलिअ-पूसमाणववद्धमाणग-आइक्खग-लंख-मंख-घंटिअगणेहिं ताहिं इटाहिं, कंताहि, पियाहिं, मणुण्णाहिं, मणामाहि, उरालाहिं,कल्लाणाहिं, सिवाहि, धन्नाहि, मंगल्लाहिं, सस्सिरिआहिं, हियगमणिज्जाहिं,
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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