SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र माडंबिअ-कोडुंबिअ-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहाइवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, ववगयइड्डिसक्कारा णं ते मणुआ पण्णत्ता । (५) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में राजा, युवराज, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशाली पुरुष, तलवर-सन्तुष्ट नरपति द्वारा प्रदत्त-स्वर्णपट्ट से अलंकृत-राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, माडंबिकजागीरदार-भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य-जिनकी अधिकृत वैभव-राशि के पीछे हाथी भी छिप जाए, इतने विशाल वैभव के स्वामी, श्रेष्ठी-संपत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठा प्राप्त सेठ, सेनापति-राजा की चतुरंगिणी सेना के अधिकारी, सार्थवाह-अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारी होते हैं ? गौतम! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य ऋद्धि-तथा सत्कार आदि से निरपेक्ष होते हैं। (६) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दासेइ वा, पेसेइ वा, सिस्सेइ वा, भयगेइ वा, भाइल्लएइ वा, कम्मयरएइ वा ? णो इणढे समढे, ववगयअभिओगा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! (६) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में दास-मृत्यु पर्यन्त खरीदे हुए या गृह-दासी से उत्पन्न परिचर, प्रेष्य-दौत्यादि कार्य करने वाले सेवक, शिष्य-अनुशासनीय, शिक्षणीय व्यक्ति, भृतक-वृत्ति या वेतन लेकर कार्य करने वाले परिचारक, भागिक-भाग बँटाने वाले, हिस्सेदार तथा कर्मकर-गृह सम्बन्धी कार्य करने वाले नौकर होते हैं ? ___ गौतम! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य स्वामी-सेवक-भाव, आज्ञापक-आज्ञाप्य-भाव आदि से अंतीत होते हैं। (७) अत्थिणंभंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा, पियाइवा, भायाइवा, भगिणीइ वा, भज्जाइ वा, पुत्ताइ वा, धूआइ वा, सुण्हाइ वा ? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं तिव्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ। (७) भगवन! क्या उस समय भरतक्षेत्र में माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा पुत्र-वधू ये सब होते हैं ? गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र प्रेम-बन्ध उत्पन्न नहीं होता। (८)अत्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा, वेरिएइवा, घायएइ वा, वहएइ वा, पडिणीयए वा, पच्चामित्तेइ वा? गोयमा ! णो इणढे समढे, ववगयवेराणुसया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! (८) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में अरि-शत्रु, वैरिक-जाति-निबद्ध वैरोपेत-जातिप्रसूत शत्रुभावयुक्त, घातक-दूसरे के द्वारा वध करवाने वाले, वधक-स्वयं वध करने वाले अथवा व्यथकचपेट आदि द्वारा ताड़ित करने वाले, प्रत्यनीक-कार्योपघातक-काम बिगाड़ने वाले तथा प्रत्यमित्र-पहले
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy