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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [३९ के मध्य भाग के समान, तलवार की श्रेष्ठ स्वर्णमय मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतले थे। उनके कुक्षिप्रदेश-उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात-सुनिष्पन्न-सुन्दर रूप में रचित तथा पीन-परिपुष्ट थे। उनके उदर मत्स्य जैसे थे। उनके करण-आन्त्रसमूह-आंतें शुचि-स्वच्छनिर्मल थीं। उनकी नाभियाँ कमल की ज्यों गंभीर, विकट-गूढ, गंगा की भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल की तरह खिली हुई थीं। उनके वक्षस्थल और उदर पर सीधे, समान, संहित-एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट, हलके, काले, चिकने, उत्तम लावण्यमय, सुकुमार, कोमल तथा रमणीय बालों की पंक्तियाँ थीं। उनकी देह के पार्श्वभाग-पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न तथा समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए थे, मनोहर थे। उनके शरीर स्वर्ण के समान कांतिमान्, निर्मल, सुन्दर, निरुपहतरोग-दोष-वर्जित तथा समीचीन मांसलतामय थे, जिससे उनकी रीढ़ी की हड्डी अनुपलक्षित थी। उनमें उत्तम पुरुष के बत्तीस लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे। उनके वक्षस्थल-सीने स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, उपचित-मांसल, विस्तीर्ण-चौड़े, पृथुल-विशाल थे। उन पर श्रीवत्स-स्वस्तिक के चिह्न अंकित थे। उनकी भुजाएँ युग-गाड़ी के जुए, यूप-यज्ञस्तम्भ-यज्ञीय खूटे की तरह गोल, लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट-सुसंगत, विशिष्ट, घन-ठोस, स्थिर-स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अर्गला-आगल के समान गोलाई लिए थीं। इच्छित वस्तु प्राप्त करने हेतु नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे। उनके पाणि-कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, मांसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षण युक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे। उनके तल-हथेलियाँ ललाई लिए हुई थीं। अंगुलियाँ पुष्ट, सुकोमल और सुन्दर थीं। उनके नख ताँबे की ज्यों कुछ-कुछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले, रुचिर-देखने में रुचिकर-अच्छे लगने वाले, स्निग्धचिकने तथा सुकोमल थे। उनकी हथेलियों में चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त एवं स्वस्तिक की शुभ रेखाएँ थीं। उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, साँड तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे। उनकी ग्रीवाएँ-गर्दने चार-चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिवलि युक्त एवं उन्नत थीं। उनकी ठुड्डियाँ मांसल-सुपुष्ट, सुगठित, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-विस्तीर्ण थीं। उनके श्मश्रुदाढ़ी व मूंछ अवस्थित-कभी नहीं बढ़ने वाला, बहुत हलकी सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, उनके होठ संस्कारित या सुघटित मूंगे की पट्टी जैसे, विम्बफल के सदृश थे। उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुन्द के फूल, जलकण और कमल नाल के समान सफेद थी। दाँत अखंड-परिपूर्ण, अस्फुटित-टूट-फूट रहित, सुदृढ, अविरल-परस्पर सटे हुए, सुस्निग्धचिकने-आभामय, सुजात-सुन्दराकार थे, अनेक दांत एक दंत-श्रेणी की ज्यों प्रतीत होते थे। जिह्वा तथा तालु अग्नि में तपाए हुए और जल से धोए हुए स्वर्ण के समान लाल थे। उनकी नासिकाएँ गरुड़ की तरहगरुड़ की चोंच की ज्यों लम्बी, सीधी और उन्नत थीं। उनके नयन खिले हुए पुंडरीक-सफेद कमल के समान थे। उनकी आँखें पद्म की तरह विकसित, धवल, पत्रल-बरौनी युक्त थीं। उनकी भौहें कुछ खिंचे हुए धनुष
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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