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नौवाँ योनिपद ]
शंखवर्त्ता योनि का स्वरूप- शंखावर्त्ता स्त्रीरत्न की अर्थात् — चक्रवर्ती की पटरानी की होती है। इस योनि में बहुत-से जीव अवक्रमण करते ( आते) हैं,, व्युत्क्रमण करते (गर्भ-रूप में उत्पन्न) होते हैं, चित होते (सामान्यरूप से बढ़ते ) हैं और उपचित होते (विशेषरूप से बढ़ते ) हैं । परन्तु वे निष्पन्न नहीं होते, गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में वृद्ध आचार्यों का मत है कि शंखावर्त्ता योनि में आए हुए जीव अतिप्रबल कामाग्नि के परिताप से वहीं विध्वस्त हो जाते हैं ।
॥ प्रज्ञापनासूत्र : नौवाँ योनिपद समाप्त ॥
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२८ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा.३, पृ. ८३-८४