SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [४६९ विवेचन—प्रथम द्वादश (बारस = बारह) द्वार : चार गतियों के उपपात और उद्वर्त्तना का विरहकाल-निरूपण- प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. ५६० से ५६८ तक) में नरकादि चार गतियों और पांचवीं सिद्धगति के जघन्य-उत्कृष्ट उपपातविरहकाल का उनके उद्वर्तनाविरहकाल का निरूपण किया गया है। निरयगति आदि चारों गतियों के लिए एक वचन प्रयोग क्यों ? निरयगति अर्थात नरकगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले जीव का औदयिक भाव। इसी प्रकार तिर्यञ्चादि-गति के विषय में समझना चाहिए। वह औदयिकभाव सामान्य की अपेक्षा से सभी गतियों में अपना-अपना एक है। नरकगति का औदयिकभाव सातों पृथ्वियों में व्यापक है, इसलिए नरकगति आदि चारों गतियों में प्रत्येक में एकवचन का प्रयोग किया गया है। उपपात और उसका विरहकाल— किसी अन्य गति से मरकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव या सिद्ध के रूप में उत्पन्न होना उपपात कहलाता है। नरकगति में उपपात के विरहकाल का अर्थ हैजितने समय तक किसी भी नये नारक का जन्म नहीं होता; दूसरे शब्दों में - नरकगति नये नारक के जन्म से रहित जितने काल तक होती है, वह नरकगति में उपपातविरहकाल है। इसी प्रकार अन्य गतियों में उपपात-विरहकाल का अर्थ समझ लेना चाहिए। नरकादि गतियाँ कम से कम एक समय और अधिक से अधिक १२ मुहूर्त तक उपपात से रहित होती हैं। बारह मुहूर्त के बाद कोई न कोई जीव नरकादि गतियों में उत्पन्न होता ही है। सिद्धगति का उपपातविरहकाल उत्कृष्टतः छह मास का बताया है, उसका कारण यह है कि एक जीव के सिद्ध होने के पश्चात् संभव है कोई जीव अधिक से अधिक छह मास तक सिद्ध न हो। छह मास के अनन्तर अवश्य ही कोई न कोई सिद्ध (मुक्त) होता है। चौबीस मुहूर्त-प्रमाण उपपातविरह क्यों नहीं ?– आगे कहा जाएगा कि उपपातविरह-काल चौबीस मुहूर्त का है, किन्तु यहां जो बारह मुहुर्त का उपपातविरहकाल बताया है, वह सामान्य रूप से नरकगति का उपपातविरहकाल है. किन्तु जब रत्नप्रभा आदि एक-एक नरकपृथ्वी के उपपात-विरहकाल की विवक्षा की जाती है, तब वह चौबीस मुहूर्त का ही होता है। इसी प्रकार अन्य गतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। उद्वर्त्तना और उसका विरहकाल- नरकादि किसी गति से निकलना उद्वर्त्तना है, प्रश्न का आशय यह है कि ऐसा कितना समय है, जबकि कोई भी जीव नरकादि गति से न निकले ? यह उद्वर्तनाविरहित काल कहलाता है। उद्वर्तना-विरहकाल चारों गतियों का उत्कृष्टतः १२ मुहूर्त का है। सिद्धगति में उद्वर्त्तना नहीं होती, क्योंकि सिद्धगति में गया हुआ जीव फिर कभी वहाँ से निकलता नहीं है। इसलिए सिद्धगति में उद्धर्त्तना नहीं होती । अतएव वहाँ उद्वर्त्तना का विरहकाल भी नहीं है। वहाँ तो सदैव उद्वर्तनाविरह १. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक २०५ (ख) प्रज्ञापना. प्र.बो. टीका भा. २, पृ. ९३५ से ९३७
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy