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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[४५५ अपेक्षा से षट्स्थानपतित है एवं शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध तथा रूक्ष पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
[२] एवं उक्कोसगुणसीए वि। ... [५४८-२] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत (द्विप्रदेशी स्कन्धों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए।)
[३] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव। नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए।
[५४८-३] मध्यमगुणशीत (द्विप्रदेशी स्कन्धों) का पर्यायसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष स्वस्थान में षट्स्थानपतित है।
[३] एवं जाव दसपएसिए। नवरं ओगाहणट्ठयाए पदेसपरिवड्डी कायव्वा जाव दसपएसियस्स णव पएसा वड्डिजंति।
[५४९.] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों तक का (पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्य समझ लेना चाहिए।) विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से पर्याय की वृद्धि करनी चाहिए। (इस दृष्टि से) यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक नौ प्रदेश बढ़ते हैं।
५५०. [१] जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपएसियाणं भंते! पुच्छा ।। गोयमा! अणंता।
से केणद्वेणं? - गोयमा! जहण्णगुणसीते संखेज्जपएसिए जहण्णगुणसीयस्स संखेज्जपएसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णाईहिं छट्ठाणवडिए, सीतफासपज्जवेहिं तुल्ले, उसिण-निद्ध-लुक्खेहिं छट्ठाणवडिए।
[५५०-१प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं? [५५०-१ उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय (कहे हैं।)
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?
[उ.] गौतम! एक जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
[२] एवं उक्कोसगुणसीए वि।