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प्रज्ञापना सूत्र [५४७-१ प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गलों के कितने पर्याय कहे हैं ?
प ., गौतमःउनक) अनन्त पर्याय (कहे हैं)
पाप्रा भगवन! किस कारण ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत-परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय है?
[उ.] गौतम! एक जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गल, दूसरे जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवर्गाहना की दृष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध और रसों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है। इसमें उष्णस्पर्श का कथन नहीं करना चाहिए। स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
[२] एवं उक्कोसगुणसीतेवि । [५४७-२] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत (परमाणुपुद्गलों) के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [३] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चैव। नवरं सटाणे छट्ठाणवडिते।
[५४७-३] मध्यमगुणशीत (परमाणुपुद्गलों) के (पर्यायों के सम्बन्ध में भी) इसी प्रकार (कहना चाहिए) विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है (हीनाधिक) है। ...[५४८] [१] जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं पुच्छा । ।
गोयमा! अणंता।
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गोयमा! जहन्नमुणसीते दुपएसिए जहण्णगुणसीयस्स दुपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले, सिय अन्भहिते-जड़ हीणे:पएसहीणे, अह अब्भहिए पएसमब्भतिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध, रसपज्जवेहिं छट्ठाणावड़िए, सीतफासपज्जवेहिं तुल्ले, उसिणा-निद्ध-लुक्खफासपज्जवेहिं छट्ठाणावड़िए। is (E
[५४८-१प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [५४८-२उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्यावः (कहे हैं)
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?
[3] गौतम! एक जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और काचित अधिक होता है। यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन होता है, यदि अधिक होतो एक प्रदेश अधिक होता है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है तथा वर्ण, गंध और रस के पर्यावों की