SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२] [प्रज्ञापना सूत्र और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है। [२] एवं उक्कोसगुणकालए वि। [४९१-२] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले मनुष्यों के (पर्यायों के) विषय में भी (समझना चाहिए।) [३] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव। नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [४९१-३] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले मनुष्यों का पर्याय-विषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं। ४९२. एवं पंच वण्णा दो गंधपंच रसा अट्ठा फासा भाणितव्वा। [४९२] इसी प्रकार पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस एवं आठ स्पर्श वाले मनुष्यों का (पर्यायविषयक) कथन करना चाहिए। ४९३. [१] जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चति ? गोयमा! जहण्णाभिणिबोहियणाणी मणूसे जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स मणूसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंधरस-फासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुतणाणपज्जवेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते। [४९३-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४९३-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक-ज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से, दो दर्शनों से षट्स्थानपतित है। [२] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। नवरं आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, तिहिं णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते। [४९३-२] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी (मनुष्यों की पर्यायों के विषय में जानना चाहिए।) विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा तीन ज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy