SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०६] [प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! जहण्णमतिअण्णाणी पुढविकाइए जहण्णमतिअण्णाणिस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, मतिअण्णाणेहिं पज्जवेहिं तुल्ले, सुयअण्णाणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [४६८-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक के कितने पर्याय कहे गए हैं? [४६८-१ उ.] गौतम! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' __[उ.] गौतम! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है; (किन्तु)अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित है; तथा वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; मति-अज्ञानी के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्तु) श्रतु-अज्ञान के पर्यायों तथा अचक्षुदर्शन के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [२] एवं उक्कोसमतिअण्णाणी वि। [४६८-२] इसी प्रकार उत्कृष्ट मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए।) [३] अजहण्णमणुक्कोसमइअण्णाणी वि एवं चेव। नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [४७०-३] अजघन्य-अनुत्कृष्ट-मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों) के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि यह स्वस्थान अर्थात् मति-अज्ञान के पर्यायों में भी षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। ४७१. एवं सुयअण्णाणी वि। अचक्खुदंसणी वि एवं चेव। [४७१] (जिस प्रकार जघन्यादियुक्त मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कहा गया है) उसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी तथा अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक जीवों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। ४७२. एवं जाव वणण्फइकाइयाणं । [४७२] (जिस प्रकार जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम-मति श्रुतज्ञानी एवं अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक पर्यायों के विषय में कहा गया है,) उसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक का (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) विवेचन – जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहनादियुक्त पृथ्वीकायिक आदि पंच स्थावरों की पर्यायविषयक प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ४६६ से ४७२ तक) में जघन्य मध्यम एवं उत्कृष्ट
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy