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[प्रज्ञापना सूत्र हीनाधिक होता है, क्योंकि उनमें अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर उत्कृष्ट ७ धनुष तक पाई जाती है। _____ मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित हीनाधिकता – जघन्य
और उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों की स्थिति तो परस्पर तुल्य कही गई है, मगर मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति में परस्पर चतुःस्थानपतित हीनाधिक्य है, क्योंकि मध्यम स्थिति तारतम्य से अनेक प्रकार की है। मध्यमस्थिति में एक समय अधिक दस हजार वर्ष से लेकर एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति परिगणित है। इसलिए इसका चतुःस्थानपतित हीनाधिक होना स्वाभाविक है। ___ कृष्णवर्णपर्याय की अपेक्षा से नारकों की तुल्यता – जिस नारक में कृष्णवर्ण का सर्वजघन्य अंश पाया जाता है, वह दूसरे सर्वजघन्य अंश कृष्णवर्ण वाले के तुल्य ही होता है, क्योंकि जघन्य का एक ही रूप है, उसमें विविधता या हीनाधिकता नहीं होती।
ज्ञान और अज्ञान दोनों एक साथ नहीं रहते - जिस नारक में ज्ञान होता है, उसमें अज्ञान नहीं होता और जिसमें अज्ञान होता है उसमें ज्ञान नहीं होता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। सम्यग्दृष्टि को ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को अज्ञान होता है। जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह मिथ्यादृष्टि नहीं होता और जो मिथ्यादृष्टि होता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। जघन्यादियुक्त अवगाहना वाले असुरकुमारादि भवनपति देवों के पर्याय
४६४.[१] जहण्णोगाहणगाणं भंते! असुरकुमाराणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? ' गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णोगाहणए असुरकुमारे जहण्णोगाहणगस्स असुरकुमारस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वन्नादीहिं छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाण- सुतणाण- ओहिणाणपज्जवेहिं तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिते।
[४६४-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४६४-१ उ.] गौतम! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा जाता है कि जघान्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?
[उ.] गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला असुरकुमार, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमार १. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १८९ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. ६४४ से ६४७ १. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १८९ (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. ६४९, ६५४