SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९२] [प्रज्ञापना सूत्र से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है। यदि हीन होता है, (तो) या तो असंख्यातभाग हीन होता है, या संख्यातभागहीन होता है, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होता है। अगर अधिक होता है तो असंख्यातभाग अधिक, या संख्यातभाग अधिक, अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हीनाधिक होता है, तथा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के तथा आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। ४४९. एवं तेइंदिया वि। [४४९] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों की अनन्तता के) विषय में समझना चाहिए। ४५०. एवं चउरिदिया वि। णवरं दो दंसणचक्खुदंसणं अचक्खुदंसण च । [४५०] इसी तरह चतुरिन्द्रिय जीवों (के पर्यायों) की अनन्तता होती है। विशेष यह है कि उनमें चक्षुदर्शन भी होता है। (अतएव इनके पर्यायों की अपेक्षा से भी चतुरिन्द्रिय की अनन्तता समझ लेनी चाहिए)। ४५१. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा नेरइयाणं तहा भाणितव्वा। [४५१] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के पर्यायों का कथन नैरयिकों के समान (४४० सूत्रानुसार) कहना चाहिए। विवेचन — विकलेन्द्रिय एवं तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों का निरूपण - प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ४४८ से ४५१ तक) में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का सयुक्तिक निरूपण किया गया है। विकलेन्द्रिय एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों के हेतु – इन सब में द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा परस्पर समानता होने पर भी अवगाहना की दृष्टि से पूर्ववत् चतु:स्थानपतित, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित एवं वर्णादि के तथा मतिज्ञानादि के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, इस कारण इनके पर्यायों की अनन्तता स्पष्ट है। मनुष्यों के अनन्तपर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपणा ४५२. मणुस्साणं भंते! केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चति मणुस्साणं अणंता पन्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! मणुस्से मणुस्सस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-अभिणिबोहियणाण-सुतणाण-ओहिणाण१. प्रज्ञापनासूत्र. म. वृत्ति, पत्रांक १८६
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy