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________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)] [३७९ स्तनितकुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक हैं, असंख्यात अप्कायिक हैं, असंख्यात तेजस्कायिक हैं, असंख्यात वायुकायिक हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, असंख्यात त्रीन्द्रिय हैं, असंख्यात चतुरिन्द्रिय हैं, असंख्यात पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त सिद्ध हैं। हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वे (जीवपर्याय) संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं। विवेचन–पर्याय के प्रकार और अनन्त जीवपर्याय का सयुक्तिक निरूपण—प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ४३८-४३९) में पर्याय के दो प्रकारों तथा जीवपर्याय की अनन्तता का युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है। पर्याय : स्वरूप और समानार्थक शब्द-यद्यपि पिछले पद में नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि के रूप में जीवों की स्थितिरूप पर्याय का प्रतिपादन किया गया है, तथापि औदयिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भावरूप जीवपर्यायों का तथा पुद्गल आदि अजीव-पर्यायों का निश्चय करने के लिए इस पद का प्रतिपादन किया गया है। जीव और अजीव दोनों द्रव्य हैं। द्रव्य का लक्षण 'गुण-पर्यायवत्त्व' कहा गया है। इसीलिए इस पद में जीव और अजीव दोनों के पर्यायों का निरूपण किया गया है। पर्याय, पर्यव, गुण, विशेष और धर्म; ये प्रायः समानार्थक शब्द हैं। ___ पर्यायों का परिमाण जानने की दृष्टि से गौतम स्वामी इस प्रकार का प्रश्न करते हैं कि जीव के पर्याय संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं? भगवान् ने जीव के पर्याय अनन्त इसलिए बताए कि जब पर्याय वाले (वनस्पतिकायिक, सिद्ध जीव आदि) अनन्त हैं तो पर्याय भी अनन्त हैं। यद्यपि वनस्पतिकायिकों और सिद्धों को छोड़ कर नैरयिक आदि सभी असंख्यात-असंख्यात हैं, किन्तु उक्त दोनों अनन्त हैं, इस अपेक्षा से जीव के पर्याय समुच्चय रूप से अनन्त ही कहे जाएंगे। संख्यात या असंख्यात नहीं। नैरयिकों के अनन्तपर्यायः क्यों और कैसे ? ४४०. नेरइयाणं भंते! केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! नेरइए नेरइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठताए, तुल्ले; ओगाहणट्ठताए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए—जति हीणे असंखेजतिभागहीणे वा संखेजतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अब्भहिए असंखेज्जइभागमब्भहिए वा संखेजभागमब्भहिए वा संखेज्जगुणमब्भहिए वा असंखेज्जगुणमब्भहिए वा; ठिईए सिय हीणे सिय १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १७९
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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