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________________ चतुर्थ स्थितिपद ] ३४२. [ १ ] अधेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । [ ३२१ [३४२ - १ प्र.] भगवन् ! अधः सप्तम ( तमस्तमः प्रभा) के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [३४२ - १] गौतम ! जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की ( कही गई ) है । [ २ ] अपज्जत्तयअधेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं । [३४२-२ प्र.] भगवन्! अपर्याप्तक अधः सप्तम ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [३४२-२] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । [ ३ ] पज्जत्तयअधेसत्तपुढविनेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई । [३४२-३ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [३४२-३] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहुर्त कम बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कम तेतीस सागरोपम की है । विवेचन—नैरयिकों की स्थिति का निरूपण – प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. ३३५ ३४२ तक) में सामान्य नारकों, सात नरकभूमियों में रहने वाले नारकों और फिर उनके अपर्याप्तकों तथा पर्याप्तकों की स्थिति पृथक्-पृथक् प्ररूपित की गई है। अपर्याप्तदशा और पर्याप्तदशा — अन्य संसारी जीवों की तरह नैरयिकों की भी दो दशाएँ हैं अपर्याप्तदशा और पर्याप्तदशा । अपर्याप्तदशा दो प्रकार से होती है - लब्धि से और करण से । नारक, देव तथा असंख्यातवर्षों की आयु वाले तिर्यञ्च एवं मनुष्य करण से ही अपर्याप्त होते हैं, लब्धि से नहीं । ये उपपात काल में ही कुछ काल तक करण से अपर्याप्त समझने चाहिए। शेष तिर्यञ्च या मनुष्य लब्धि और करण—- दोनों प्रकार से उपपातकाल में अपर्याप्तक हो सकते हैं । यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपर्याप्त अवस्था जघन्यत और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त तक ही रहती है। उसके बाद पर्याप्तदशा आ जाती है । इसलिए सामान्य स्थिति में से अपर्याप्तदशा की अन्तर्मुहूर्त की स्थिति को कम कर देने पर शेष स्थिति पर्याप्तकों की रह जाती है । जैसे— प्रथम नरकपृथ्वी में सामान्य स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सारोगपम की है। इसमें से अपर्याप्तदशा की अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति कम कर देने पर -
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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