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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
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की राशि के बराबर है। (५) उनकी अपेक्षा उपरितन ग्रैवेयकत्रिक के देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तर क्षेत्रपल्योपम के संख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इसे जानने का मापदण्ड है उत्तरोत्तर विमानों की अधिकता। अनुत्तर देवों के ५ विमान हैं, किन्तु ऊपर के तीन ग्रैवेयकों में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव हैं। नीचे-नीचे के विमानों में अधिक-अधिक देव होते हैं, इसीलिए अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा ऊपरी तीन ग्रैवेयकों के देव संख्यातगुणे हैं। आगे भी आनतकल्प के देवों (६ से ११) तक उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं, कारण पहले बताया जा चुका है। यद्यपि आरण और अच्युत कल्प समश्रेणी में स्थित हैं और दोनों की विमान संख्या समान है तथापि स्वभावतः कृष्णपक्षी जीव प्रायः दक्षिणादिशा में उत्पन्न होते हैं, उत्तरदिशा में नहीं और कृष्णपाक्षिक जीव शुक्लपाक्षिकों की अपेक्षा अधिक होते है। इसीलिए अच्युत से आरण प्राणत, और आनत कल्प के देव उत्तरोत्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। (१२) उनकी अपेक्षा सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमशः (१३) छठी नरक के नारक, (१४) सहस्रारकल्प के देव, (१५) महाशुक्रकल्प के देव, (१६) पंचम धूमप्रभा नरक के नारक, (१७) लान्तककल्प के देव, (१८) चतुर्थ पंकप्रभानरक के नारक, (१९) ब्रह्मलोककल्प के देव, (२०) तृतीय बालुकाप्रभा नरक के नारक, (२१) माहेन्द्रकल्प के देव, (२२) सनत्कुमारकल्प के देव, (२३) दूसरी शर्कराप्रभा नरक के नारक असंख्यात-असंख्यातगुणे हैं। सातवीं पृथ्वी से लेकर दूसरी पृथ्वी तक के नारक प्रत्येक अपने स्थान में प्ररूपित किये जाएँ तो सभी घनीकृत लोकश्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाश प्रदेशों की राशि के बराबर हैं, मगर श्रेणी के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं। अतः इनसे सर्वत्र उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अल्पबहुत्व कहने में कोई विरोध नहीं आता। शेष सब युक्तियाँ पूर्ववत् समझनी चाहिए। (२४) उनकी अपेक्षा सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित तीसरे वर्गमूल में जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने प्रमाण में सम्मूर्छिम मनुष्य होते हैं। (२५) उनसे ईशानकल्प देव संख्यातगुणे हैं, यह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। (२६) ईशानकल्प की देवियाँ उनसे संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक होती हैं। (२७) इनसे सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणे विमान हैं, (२८) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार सौधर्मकल्प की देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होने से संख्यातगुणी हैं। (२९) इनकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं। अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के तीसरे वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल में जितने प्रदेशों की राशि होती है, उतनी प्रमाण वाली घनीकृत लोक की एक प्रदेश वाली श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतनी ही संख्या भवनपति देवों और देवियों की है। (३०) देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होती है, इस कारण भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी १. (क) 'बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया उ होंति देवीओ।' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १६४