SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [३०५ वहाँ भवन तथा पोल अधिक है। उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में पोलार होने से वहाँ पुद्गल बहुत होते हैं। पश्चिम की अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक हैं, क्योंकि उत्तर में संख्यातकोटा-कोटी योजन-लम्बा-चौड़ा मानससरोवर है, जहाँ जलचर तथा काई, शैवाल आदि बहुत प्राणी हैं, उनके तैजस-कार्मणशरीर के पुद्गल अत्यधिक पाए जाते हैं। इस कारण पश्चिम से उत्तर में विशेषाधिक पुद्गल कहे गए हैं। क्षेत्रानुसार सामान्यतः द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम द्रव्य त्रैलोक्यस्पर्शी हैं, क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकशास्तिकाय, महास्कन्ध और जीवास्तिकाय में से मारणान्तिक समुद्घात से अतीव समवहत जीव ही त्रैलोक्यस्पर्शी होते हैं और वे अल्प हैं। इसलिए ये सबसे कम हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक नामक दो प्रतरों में अनन्तगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों प्रतरों को अनन्त पुद्गलद्रव्य और अनन्त जीवद्रव्य स्पर्श करते हैं। इन दोनों प्रतरों की अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक नामक प्रतरों में कुछ अधिक द्रव्य हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे द्रव्य अधिक हैं। क्योंकि वह क्षेत्र असंख्यातगुणा विस्तृत है। उनकी अपेक्षा अधोलोक में अनन्तगुणे अधिक द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में काल है, जिसका सम्बन्ध विभिन्न परमाणुओं, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी द्रव्य. क्षेत्र काल. भाव के पर्यायों के साथ होने के कारण प्रत्येक परमाण आदि द्रव्य अनन्त प्रकार का होता है। अधोलोक की अपेक्षा तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्राम-प्रमाण खण्ड कालद्रव्य के आधारभूत मनुष्यलोक में संख्यात पाए जाते हैं। दिशाओं की अपेक्षा से सामान्यतः द्रव्यों का अल्पबहुत्व- सामान्यतया सबसे कम द्रव्य अधोदिशा में हैं, उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणे हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत का पाँच सौ योजन का स्फटिकमय काण्ड है, जिसमें चन्द्र और सूर्य की प्रभा के होने से तथा द्रव्यों के क्षण आदि काल का प्रतिभाग होने से तथा पूर्वोक्त नोति से प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्यों के साथ काल अनन्त होने से द्रव्य का अनन्तगणा होना सिद्ध है। ऊर्ध्वदिशा की अपेक्षा उत्तरपूर्व—ईशानकोण में तथा दक्षिणपश्चिम–नैर्ऋत्यकोण में असंख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ के क्षेत्र असंख्यातगुणा हैं, किन्तु इन दोनों दिशाओं में बराबर-बरार ही द्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों का क्षेत्र बराबर है। इन दोनों की अपेक्षा दक्षिणपूर्व - आग्नेयकोण में तथा उत्तरपश्चिम - वायव्यकोण में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन दिशाओं में विद्युत्प्रभ एवं माल्यवान् पर्वतों के कूट के आश्रित कोहरे, ओस आदि श्लक्ष्ण पुद्गलद्रव्य बहुत होते हैं। इनकी अपेक्षा पूर्वदिशा से असंख्यातगुणा क्षेत्र अधिक होने से द्रव्य भी असंख्यातगुणे अधिक है। पूर्व की अपेक्षा पश्चिम दिशा में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि यहाँ अधोलोकिक ग्रामों में पोल होने के कारण बहुत-से पुद्गलद्रव्यों का सद्भाव है। उसकी अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ बहुसंख्यक भुवनों में रन्ध्र (पोल) हैं। दक्षिण से उत्तरदिशा में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ मानससरोवर में रहने वाले जीवों के आश्रित तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध द्रव्य बहुत हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १५८-१५९ २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक १५९
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy