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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
[२९५ उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक तो उनका स्वस्थान ही है, वहाँ तो अत्यधिक होना स्वाभाविक है।
वैमानिक देवियों का अल्पबहुत्व भी देवसूत्र की तरह समझ लेना चाहिए।
क्षेत्रानुसार एकेन्द्रियादि जीवों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व- (१) एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-क्षेत्रानुसार चिन्तन करने पर एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय अपर्याप्तक एवं एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव सबसे कम ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में हैं। कई एकेन्द्रिय जीव वहीं स्थित रहते हैं, कई ऊध्वलोक से तिर्यग्लोक में तथा तिर्यग्लोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जब मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं, तब वे उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं, वे बहुत अल्प होते हैं, इसलिए सबसे अल्प उक्त प्रतरद्वय में बताये गए हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलोक से तिर्यग्लोक में या तिर्यग्लोक से अधोलोक में इलिकागति से उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। वहीं रहने वाले एकेन्द्रिय भी ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में अधिक होते हैं, उनसे भी अधिक अधोलोक से तिर्यग्लोक में उत्पन्न होने वाले जीव पाए जाते हैं। इस कारण उक्त दोनों प्रतरों में विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में एकेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उक्त प्रतरद्वय के क्षेत्र से तिर्यग्लोक का क्षेत्र असंख्यातगुणा अधिक है। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यस्पर्शी असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि बहुत-से एकेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में और अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं, और उनमें से बहुत-से मारणान्तिक-समुद्घातवश अपने आत्मप्रदेश-दण्डों को फैला कर तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, इस कारण वे असंख्यातगुणे हो जाते हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उपपातक्षेत्र अत्यधिक है। उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोकगत क्षेत्र से अधोलोकगत क्षेत्र विशेषाधिक है। एकेन्द्रिय अपर्याप्तक तथा पर्याप्तक के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।
(२) द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक-पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व -क्षेत्रानुसार विचार करने पर सबसे कम द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक में एकदेश - मेरुशिखर की वापी आदि में ही शंख आदि द्वीन्द्रिय पाये जाते हैं, उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि जो ऊर्ध्वलोक से तिर्यग्लोक में या तिर्यग्लोक से ऊर्ध्वलोक में द्वीन्द्रियरूप से उत्पन्न होने वाले होते हैं, द्वीन्द्रियायु का अनुभव कर रहे होते हैं, तथा इलिकागति से उत्पन्न होते हैं, अथवा जो द्वीन्द्रिय तिर्यग्लोक से ऊर्ध्वलोक में, या ऊर्ध्वलोक से तिर्यग्लोक में द्वीन्द्रियरूप से या अन्य किसी रूप से उत्पन्न होने वाले हों, जिन्होंने पहले मारणान्तिकसमुद्घात किया हो, अतएव जो द्वीन्द्रियायु का वेदन कर रहे हों, समुद्घातवश अपने आत्मप्रदेशों को जिन्होंने दूर तक फैलाया हो, और जो प्रतरद्वय के अधिकृतक्षेत्र में ही रह रहे हैं, ऐसे जीब उक्त प्रतरद्वय का स्पर्श करते हैं, और वे अत्यधिक होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त से असंख्यातगुणे अधिक कहे गए हैं। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यस्पर्शी