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[प्रज्ञापना सूत्र गमन भी होता है। इनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में वे संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक तो उनका स्वस्थान है ही। इसी प्रकार व्यन्तरदेवियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। ज्योतिष्कदेव- देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-क्षेत्र की अपेक्षा विचार करने पर सबसे कम ज्योतिष्क देव ऊर्ध्वलोक में हैं, क्योंकि कुछ ही ज्योतिष्क देवों का तीर्थंकरजन्ममहोत्सव निमित्त, या अंजन-दधिमुखादि पर अष्टाह्निकानिमित्त अथवा कतिपय देवों का मन्दराचलादि पर क्रीड़ानिमित्त गमन होता है। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, उन दोनों प्रतरों को कोई ज्योतिष्कदेव स्वस्थान में स्थित रहे हुए स्पर्श करते हैं, कोई वैक्रियसमुद्घात करके आत्मप्रदेशों से उनका स्पर्श करते हैं, कोई ऊर्ध्वलोक में जाते-आते उनका स्पर्श करते हैं। इस कारण दोनों प्रतरों का स्पर्श करने वाले ऊर्ध्वलोकगत देवों से असंख्यातगुणे हैं। उनसे त्रैलोक्यवर्ती ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि जो ज्योतिष्कदेव तथाविध तीव्र प्रयत्नवश वैक्रियसमुद्घात करते हैं, वे तीनों लोकों को अपने आत्मप्रदेशों से स्पर्श करते हैं; वे स्वभावतः अत्यधिक हैं, इस कारण पूर्वोक्त देव संख्यातगुणे हैं। उनसे अधोलोक-तिर्यग्लोक प्रतरद्वयसंस्पर्शी ज्योतिष्कदेव असंख्यातगुणे हैं; क्योंकि बहुत-से देव अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादिनिमित्त या अधोलोक में क्रीड़ानिमित्त जाते-आते हैं, तथा बहुत-से देव अधोलोक से ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तब वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इसलिए पूर्वोक्त देवों से ये देव असंख्यातगुणे हो जाते हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणे हैं; क्योंकि बहुत-से देव अधोलोक में क्रीड़ा के लिए या अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि के लिए चिरकाल तक रहते हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक तो उनका स्वस्थान है। इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवियों के अल्पबहुत्व का भी विचार कर लेना चाहिए। वैमानिक देव-देवियों का पृथक्-पृथ्क् अल्पबहुत्व' -क्षेत्रानुसार विचार करने पर सबसे अल्प वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक प्रतरद्वय में हैं, क्योंकि अधोलोकतिर्यग्लोकवर्ती जो जीव वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, तथा जो वैमानिक तिर्यग्लोक में गमनागमन करते हैं, एवं जो उक्त दोनों प्रतरों में स्थित क्रीड़ास्थान में आश्रय लेकर रहते हैं, और जो तिर्यग्लोक में रहे हुए ही वैक्रिय समुद्घात या मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, वे तथाविध प्रयत्नविशेष से अपने आत्मप्रदेशों को ऊर्ध्वदिशा में निकालते हैं, तब पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं, ऐसे वैमानिक देव बहुत ही अल्प होते हैं, इसलिए सबसे कम वैमानिक देव पूर्वोक्तप्रतरद्वय में हैं। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यवर्ती वैमानिक पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार संख्यातगुणे अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक तिर्यग्लोक-संज्ञक दो प्रतरों में सख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका अधोलौकिक ग्रामों में तीर्थकर समवसरणादि में गमनागमन होने से तथा उक्त दो प्रतरों में होने वाले समवसरणादि में अवस्थान के कारण बहुत-से देवों के उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है, उनकी अपेक्षा अधोलोक तथा तिर्यग्लोक में उत्तरोत्तर क्रमश: संख्यातगुणे हैं, पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार बहुत से देवों का उभयत्र समवसरणादि तथा क्रीड़ा-स्थानों में अवस्थान होता है। १. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक १४९ से १५१