SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [२७५ जब वर्तमान समय होता है। तो उसके आगे पीछे के समय का अभाव होता है। अतएव उनमें स्कन्धरूप परिणाम का अभाव है। अतएव अद्धा-समय (कालद्रव्य) के प्रदेश नहीं होते। धर्मास्तिकायादि का एक साथ द्रव्य प्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व—सबसे कम द्रव्यदृष्टि से धर्मास्तिकाय आदि तीनों द्रव्य हैं, क्योंकि तीनों एक-एक द्रव्य हैं। इनकी अपेक्षा प्रदेशों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों तुल्य व असंख्यातगुणे हैं क्योंकि दोनों के प्रदेश असंख्यातअसंख्यात हैं। इन दोनों से जीवास्तिकाय द्रव्यदृष्टि से अनन्तगुणा है। क्योंकि जीवद्रव्य अनन्त हैं। उनसे जीवास्तिकाय प्रदेशदृष्टि से असंख्यातगुणा है, क्योंकि प्रत्येक जीव के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रदेशरूप जीवास्तिकाय से द्रव्यरूप पुद्गलास्तिकाय अनन्तगुणा है, क्योंकि जीव के एक-एक प्रदेश के साथ अनन्त-अनन्त कर्मपुद्गलद्रव्य सम्बद्ध हैं। द्रव्यरूप पुद्गलास्तिकाय से प्रदेशरूप पुद्गलास्तिकाय असंख्यातगुणा है। इसका कारण पहले बताया जा चुका है। प्रदेशरूप पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा अद्धासमय (काल) द्रव्य और प्रदेश की दृष्टि से पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार अनन्तगुणा हैं, इसकी अपेक्षा आकाशास्तिकाय प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा है। क्योंकि आकाशास्तिकाय सभी दिशाओं में अनन्त है, उसकी कहीं सीमा नहीं है; जबकि अद्धा-समय(काल) सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में होता है। बाईसवाँ चरमद्वार : चरम और अचरम जीवों का अल्पबहुत्व २७४. एतेसिं णं भंते! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा १, चरिमा अणंतगुणा २। दारं २२॥ [२७४ प्र.] भगवन् ! इन चरम और अचरम जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२७४ उ.] गौतम! अचरम जीव सबसे थोड़े हैं, (उनसे) चरम जीव अनन्तगुणे है। बावीसवाँ (चरम) द्वार ॥ २२॥ विवेचन—बावीसवाँ चरमद्वार-चरम और अचरम जीवों का अल्पबहुत्व-चरम और अचरम की व्याख्या—जिन जीवों का इस संसार में चरम अन्तिम भव (जन्म-मरण) संभव है, वे चरम कहलाते हैं, अथवा जो जीव योग्यता से भी चरम भव (निश्चित् रूप से मोक्ष) के योग्य हैं, वे भव्य भी चरम कहलाते हैं। अचरम (चरमभव के अभाव वाले ) अभव्य हैं या जिनका अब चरमभव (शेष) नहीं हैं, वे अचरम- सिद्ध कहलाते हैं। चरम और अचरम का अल्पबहुत्व—सबसे कम अचरम जीव हैं, क्योंकि अभव्य और सिद्ध दोनों प्रकार के अचरम मिलकर भी अजघन्योत्कृष्ट अनन्त होते हैं; जबकि उभयविध चरम (चरमशरीरी तथा भव्यजीव) उनकी अपेक्षा अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्तपरिमाण हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति , पत्रांक १४२-१४३ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १४३
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy