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तृतीय बहुवक्तव्यतापद]
[२७३ अमुक काल में अमुक आकाश-प्रदेश में अवगाहन करेगा, दूसरे समय में किसी दूसरे आकाश-प्रदेश में। जैसे—एक परमाणु के क्षेत्र की दृष्टि से विभिन्न कालवर्ती अनन्त भावीसंयोग हैं, वैसे ही अनन्तप्रदेशस्कन्धपर्यन्त द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के प्रत्येक के एक-एक आकाशप्रदेश में अवगाहन-भेद से भिन्न-भिन्न कालों में होने वाले भावी संयोग अनन्त हैं। इसी प्रकार काल की अपेक्षा भी यह परमाणु इस आकाशप्रदेश में एक समय की स्थिति वाला, दो आदि समयों की स्थिति वाला हैं, इस प्रकार एक परमाणु के एक आकाशप्रदेश में असंख्यात भावीसंयोग होते हैं, इसी तरह सभी आकाशप्रदेशों में प्रत्येक परमाणु के असंख्यात-असंख्यात भावीसंयोग होते हैं, भावीसंयोग होते हैं, फिर पुनः पुनः उन आकाशप्रदेशों में काल का परावर्तन होने पर और काल अनन्त होने से, काल की अपेक्षा से भावीसंयोग अनन्त होते हैं। जैसे एक परमाणु के क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा से भावीसंयोग होते हैं तथा सभी द्विप्रदेशी स्कन्धादि परमाणुओं के प्रत्येक के पृथक्-पृथक् अनन्त-अनन्त संयोग होते हैं। इसी प्रकार भाव की अपेक्षा से भी समझ लेना चाहिए। यथा—यह परमाणु अमुक काल में एक गुण काला होगा। इस प्रकार एक ही परमाणु के भाव की अपेक्षा से भिन्न-भिन्नकालीन अनन्त संयोग समझ लेने चाहिए। एक परमाणु की तरह सभी परमाणुओं एवं द्विप्रदेशी अदि स्कन्धों के पृथक्-पृथक् अनन्त संयोग भाव की अपेक्षा से भी होते हैं। इस प्रकार विचार करने पर एक ही परमाणु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-विशेष के सम्बन्ध से अनन्त भावी समय सिद्ध होते हैं और जो बात एक परमाणु के विषय में है, वही सब परमाणुओं एवं द्विप्रदेशिक आदि स्कन्धों के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिए। यह सब परिणमनशील काल नामक वस्तु के बिना और परिणमनशील पुद्गलास्तिकाय आदि वस्तुओं के बिना संगत नहीं हो सकता।
जिस प्रकार परमाणु, द्विप्रदेशिक अदि स्कन्धों में से प्रत्येक के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविशेष के सम्बन्ध से अनन्त भावी अद्धाकाल प्रतिपादित किये गए हैं, इसी प्रकार भूत अद्धाकाल भी समझ लेने चाहिए।
(२) धर्मास्तिकाय आदि का प्रदेशों की अपेखा से अल्पबहुत्व-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं, क्योंकि दोनों के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के जितने ही हैं। अतः अन्य द्रव्यों से इनके प्रदेश सबसे कम हैं। इन दोनों से जीवास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है, क्योंकि जीव द्रव्य अनन्त हैं, उनमें से प्रत्येक जीवद्रव्य के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं। उससे भी पुद्गलास्तिकाय प्रदेशों को अपेक्षा से अनन्तगुण है। क्योंकि पुद्गल की अन्य वर्गणाओं को छोड़ दिया जाय और केवल कर्मवर्गणाओं को ही लिया जाए तो भी जीव का एक१. संयोगपुरस्कारश्च नाम भाविनि हि युज्यते काले। न हि संयोगपुरस्कारो ह्यसतां केचिदुपपन्नः॥१॥
-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १४१. २. प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक १४१