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तृतीय बहुवक्तव्यतापद ]
नोअभवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं और ( उनसे भी) ३. भवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं ।
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बीसवाँ (भव) द्वार ॥२०॥
विवेचन—बीसवाँ भवसिद्धिकद्वार : भवसिद्धिकद्वार के माध्यम से जीवों का अल्पबहुत्वप्रस्तुत सूत्र (२६९) में भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक- नोअभवसिद्धिक जीवों का अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है।
सबसे कम अभवसिद्धिक—अभव्य — मोक्षगमन के अयोग्य जीव हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक प्रमाण वाले हैं। अनुयोगद्वार के अनुसार- 'उत्कृष्ट परीतानन्त में एक रूप (संख्या) मिलाने से' 'जघन्य युक्तानन्तक' होता है; अभवसिद्धिक उतने ही हैं। उनकी अपेक्षा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि जो भव्य भी नहीं और अभव्य भी नहीं, ऐसे जीव सिद्ध हैं और वे अजघन्योत्कृष्ट युक्तानन्तकपरिमाण हैं, इस कारण वे अनन्त हैं । उनकी अपेक्षा भवसिद्धिक- भव्य मोक्षगमनयोग्य जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध एक भव्यनिगोदराशि के अनन्तभागकल्प होते हैं और ऐसी भव्य जीवनिगोदराशियाँ लोक में असंख्यात हैं ।
इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार : अस्तिकायद्वार के माध्यम से षड्द्रव्य का अल्पबहुत्व
२७०. एतेसि णं भंते! धम्मत्विकाय - अधम्मत्थिकाय- आगासत्थिकाय-जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धसमयाणं दव्वट्टयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया
वा ?
गोयमा ! धम्मत्थिकाय अधम्मत्थिकाय आगासत्थिकाय य एए तिन्नि वि तुल्ला दव्वटुयाए सव्वत्थोवा १, जीवत्थिकाय दव्यट्टयाए अनंतगुणे २, पोग्गलत्थिकाए दव्वट्टयाए अनंतगुणे ३, अद्धसमए दव्वट्टयाए अनंतगुणे ।
[२७० प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा - समय (काल) इन द्रव्यों में से, द्रव्य की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?
[२७० उ.] गौतम! १. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों ही तुल्य हैं तथा द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प हैं; २. ( इनकी अपेक्षा) जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं; ३. (इससे) पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है; ४. ( और इससे भी) अद्धा-समय (कालद्रव्य) द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है ।
२७१. एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय - अधम्मत्थिकाय - आगासत्थिकाय-जीवत्थिकाय
१. 'उक्कोसए परित्ताणंतए रूवे पक्खित्ते जहन्नयं जुत्ताणंतयं होई, अभवसिद्धिया वि तत्तिया चेव - अनुयोगद्वार' २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १४०