SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] चौदहवाँ आहारद्वार : आहारक- अनाहारक जीवों का अल्पबहुत्व २६३. एतेसि णं भंते! जीवाणं आहारगाणं अणाहारगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? [ २६५ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अणाहारगा १, आहारगा असंखेज्जगुणा २ | दारं १४ ॥ [२६३ प्र.] भगवन्! इन आहारकों और अनाहारक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२६३ उ.] गौतम! १. सबसे कम अनाहारक जीव हैं, २. ( उनसे) आहारक जीव असंख्यातगुणे चौदहवाँ (आहार) द्वार ॥ १४ ॥ विवेचन—चौदहवाँ आहारद्वार : आहार की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व -- प्रस्तुत सूत्र (२६३) आहारक - अनाहारक जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। सबसे थोड़े अनाहारक जीव हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए जीव, समुद्घातप्राप्त केवली और अयोगी सिद्ध जीव ही अनाहारक होते हैं। उनकी अपेक्षा आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं । प्रश्न हो सकता है कि आहारक जीवों में वनस्पतिकायिक भी हैं और वे सिद्धों से अनन्त हैं, तो अनाहारकों से अनन्तगुणे क्यों नहीं बताए गए ? असंख्यातगुणे ही क्यों बताए गए ? इसका समाधान यह है कि सूक्ष्म निगोद सब मिलकर भी असंख्यात हैं, उनमें भी अन्तर्मुहूर्त समय की राशि के तुल्य हैं, तथा सदैव विग्रहगति में ही रहते हैं, इसलिए उनमें अनाहारक बहुत अधिक होते हैं । और वे समग्रजीवराशि के असंख्येयभाग के तुल्य होते हैं । अतः उनकी अपेक्षा आहारकजीव असंख्यात - गुणे ही हैं, अनन्तगुणे नहीं । २ है। पन्द्रहवाँ भाषकद्वार : भाषा की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व २६४. एतेसि णं भंते! जीवाणं भासगाणं अभासगाण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया का तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा भासगा १, अभासना अनंतगुणा २ | दारं १५ ॥ [ २६४ प्र.] भगवन्! इन भाषक और अभाषक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? [२६४ उ.] गौतम! १. सबसे अल्प भाषक जीव हैं, २. ( उनसे ) अनन्तगुणे अभाषक हैं। पन्द्रहवाँ (भाषक) द्वार ॥ १५ ॥ १. विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा ॥ - प्रज्ञापना, म. वृत्ति पत्रांक १३८ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक १३८
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy