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प्रज्ञापना के रचयिता
प्रज्ञापना
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मूल में कहीं पर भी उसके रचयिता के नाम का निर्देश नहीं है। उसके प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् दो गाथाएँ हैं । उनकी व्याख्या आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि दोनों ने की है । किन्तु वे उन गाथाओं को प्रक्षिप्त मानते हैं । उन गाथाओं में स्पष्ट उल्लेख है—यह श्यामाचार्य की रचना है। आचार्य मलयगिरि ने श्यामाचार्य के लिए 'भगवान्' विशेषण का प्रयोग किया है। ४२ आर्य श्याम वाचक वंश के थे । वे पूर्वश्रुत में निष्णात थे। उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में विशिष्ट कला प्रदर्शित की जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की चर्चा के लिए प्रज्ञापना देखने का सूचन किया है । नन्दी - स्थविरावली में सुधर्मा से लेकर क्रमशः आचार्यों की परम्परा का उल्लेख है । उसमें ग्यारहवाँ नाम 'वन्दिमो हारियं च सामज्जं ' है । हारित गोत्रीय आर्य बलिस्सह के शिष्य आर्य स्वाति थे । आर्य स्वाति भी हारित गोत्रीय परिवार के थे । आचार्य श्याम आर्य स्वाति के शिष्य थे । ४३ किन्तु प्रज्ञापना की प्रारम्भिक प्रक्षिप्त गाथा में आर्य श्याम को वाचक वंश का बताया है और साथ ही तेवीसवें पट्ट पर भी बताया है। आचार्य मलयगिरि ने भी उनको तेवीसवीं आचार्यपरम्परा पर माना है । किन्तु सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक उन्होंने नाम नहीं दिये हैं। पट्टावलियों के अध्ययन से यह भी परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नाम के तीन आचार्य हुए हैं। एक का वीर निर्वाण ३७६ में स्वर्गवास हुआ था । ४ द्वितीय गर्दभिल्ल को नष्ट करने वाले कालकाचार्य हुए हैं। उनका समय वीरनिर्वाण ४५६ है।४५ तृतीय कालकाचार्य, जिन्होंने संवत्सरी महापर्व पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाया था, उनका समय वीरनिर्वाण ९९३ है । ४६ इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य 'श्यामाचार्य' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अपने युग के महा-प्रभावक आचार्य थे। उनका जन्म वीरनिर्वाण २८० (विक्रम पूर्व १९० ) है। संसार से विरक्त होकर वीरनिर्वाण ३०० (विक्रम पूर्व १७० ) में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की । दीक्षा ग्रहण के समय उनकी अवस्था बीस वर्ष की थी। अपनी महान् योग्यता के आधार पर वीरनिर्वाण ३३५ (विक्रमपूर्व १३५) में उन्हें युग-प्रधानाचार्य के पद से विभूषित किया गया था। ४७
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इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य ने, जिन्हें श्यामाचार्य भी कहते हैं, प्रज्ञापना जैसे विशालकाय सूत्र की रचना कर अपने विशद वैदुष्य का परिचय दिया था । ४८ अनुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना द्रव्यानुप्रयोग ४२. (क) भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति, (टीका, पत्र ७२) (ख) भगवान् आर्यश्यामपठति (टीका, पत्र ४७ ) (ग) सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान्, आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका, पत्र ३८५ ) (घ) भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ (टीका, पत्र - ३८५)
४३. हारियगोत्तं साइं च, वंदिमो हारियं च सामज्जं ॥ २६ ॥ (नन्दी स्थविरावली)
४४. (क) आद्या: प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोद-विचारवक्ता श्यामाचार्यपरनामा । स तु वीरात् ३७६ वर्षेर्जातः । (ख) धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार एक कालक जो वीरनिर्वाण ३७६ में मृत्यु को प्राप्त हुए ।
४५. ‘पन्नवणासुत्तं' —पुण्यविजयजी म. प्रस्तावना पृष्ठ २२
४६. (क) पृथ्वीचन्द्रसूरि विरचित कल्पसूत्र टिप्पणक, सूत्र ३९१ की व्याख्या । (ख) कल्पसूत्र की विविध टीकाएँ । ४७. सिरिवीराओ गएसु, पणतीसहिएसु तिसय ( ३३५) वरिसेसु । पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति ॥ ५५ ॥ ( रत्नसंचय प्रकरण, पत्रांक ३२ )
४८. निज्जूढा जेण तया पन्नवणा सव्वभावपन्नवणा । तेवीसइमो पुरिसो पवरो सो जयइ सामज्जो ॥ १८८॥
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