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________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापदः प्राथमिक ] [२१३ नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीवों के, साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त जीवों के, आहारकअनाहारक जीवों के, भाषक-अभाषक जीवों के, परीत्त-अपरीत्त-नोपरीत्त-नोअपरीत्त जीवों के, पर्याप्तअपर्याप्त-नोपर्याप्त-नोअपर्याप्तकों के, सूक्ष्म,बादर-नोसूक्ष्म-नोबादरों के, संज्ञी-असंज्ञी-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के, भवसिद्धिक अभवसिद्धिक-नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों के, धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों के द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य-प्रदेश की दृष्टि से पृथक्-पृथक् एवं समुच्चय जीवों के, चरमअचरम जीवों के, जीव-पुद्गल-काल-सर्वद्रव्य सर्वप्रदेश-सर्वपर्यायों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। - इसके पश्चात् सू. २७६ से ३२३ तक चौबीसवें क्षेत्रद्वार के माध्यम से ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक, ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक, अधोलोक-तिर्यक्लोक एवं त्रैलोक्य में सामान्य जीवों के, तथा नैरयिक, तिर्यंचयोनिक पुरुष-स्त्री, मनुष्यपुरुष-स्त्री, देव-देवी, भवनपति देव-देवी, वाणव्यन्तर देव-देवी, ज्योतिष्क देव-देवी, वैमानिक देव-देवी, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों के तथा षट्कायिक पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। ) पच्चीसवें बन्धद्वार (सू. ३२५) में आयुष्यकर्मबन्धक-अबन्धक, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, सुप्त-जागृत, समवहत-असमवहत, सातावेदक-असातावेदक, इन्द्रियोपयुक्त-नोइन्द्रियोयुक्त, एवं साकारोपयुक्त अनाकारोपयुक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है। 0 छव्वीसवें पुद्गलद्वार में क्षेत्र और दिशाओं की अपेक्षा से पुद्गलों तथा द्रव्यों का एवं द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से परमाणु पुद्गलों एवं संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का तथा एक प्रदेशावगाढ़ संख्यातप्रदेशावगाढ़ एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों का, एकसमयस्थितिक, संख्यातसमयस्थितिक और असंख्यातसमयस्थितिक पुद्गलों का एवं एकगुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला और अनन्तगुण काला आदि पुद्गलों का अल्पबहुत्व प्ररूपित किया गया है। 0 सत्ताईसवें महादण्डकद्वार में समग्रभाव से पृथक्-पृथक् सविशेष जीवों के अल्पबहुत्व का ९८ क्रमों में कथन किया गया है। षटखण्डागम के महादण्डक द्वार में भी सर्वजीवों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। - महादण्डक द्वार में समग्ररूप से जीवों की अल्पबहुत्व-प्ररूपणा की है। इस लम्बी सूची पर से फलित होता है कि उस युग में भी आचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य बताने का प्रयत्न किया है तथा मनुष्य हो, देव हो या तिर्यच हो, सभी में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक मानी गई है। अधोलोक में पहली से सातवीं नरक तक क्रमशः जीवों की संख्या घटती जाती है, जबकि ऊर्ध्वलोक में इससे उलटा क्रम है, वहाँ सबसे ऊपर के अनुत्तर विमानवासी देवों की संख्या सबसे १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. ८४ से १०१ तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ११३ से १६८ तक २. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. १०१ से ११२ तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, पृ. ५२-५३ (प्रस्तावना)
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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