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द्वितीय स्थानपद]
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अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अंदर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तट (पाथड़े) सोने की रुचिर बालू वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता-उत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) एवं प्रतिरूप (अतिसुन्दर) हैं।
___ इन (विमानावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से—लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
वहाँ (ज्योतिष्क विमानावासों में) बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैंवृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल), ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं (अर्थात्—ये किञ्चित् रक्त वर्ण के हैं।) और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति (संचार) करते हैं तथा गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पांच वर्षों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त (बिना रुके) मंडल (वृत्त, गोलाकार) में गति करने वाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं।) (इन सब में से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है। ये महर्द्धिक होते हैं,' इत्यादि सब वर्णन (सू. १८८ के अनुसार), यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणे') तक (पूर्ववत् समझना चाहिए)।
वे (ज्योतिष्क देव) वहाँ (ज्योतिष्कविमानावासों में) अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपनेअपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी सेनाओं का अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने- अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवत्तत्व (अग्रेसरत्व), करते हुए (आगे का समग्र वर्णन) यावत् विचरण करते हैं ('विहरंति') तक सू. १८८ के अनुसार समझना चाहिए।
[२] चंदिम-सूरिया यऽत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव (सु १८८) पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं सांण जोइसियविमाणावाससतसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं जाव विहरंति। __[१९५-२] इन्हीं (पूर्वोक्त ज्योतिष्कविमानावासों) में दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज–चन्द्रमा और सूर्य—निवास करते हैं; 'जो महर्द्धिक हैं' (इत्यादि सब वर्णन सू. १८८ के अनुसार) यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणे') (तक पूर्ववत् समझना चाहिए।) वे वहाँ अपने-अपने लाखों ज्योतिष्कविमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन—ज्योतिष्क देवों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (सू. १९५-१, २) में ज्योतिष्क