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प्रस्तावना प्रज्ञापना : एक समीक्षात्मक अध्ययन
(प्रथम संस्करण से)
भारतवर्ष अध्यात्म की भूमि है। यहाँ के प्रत्येक कण-कण में अध्यात्म का सुरीला संगीत है। प्रत्येक अणु-अणु में तत्त्व-दर्शन का मधुर रस हैं। यहाँ की पावन पुण्य धरा ने ऐसे नर-रत्नों का प्रसव किया है जो धर्म और अध्यात्म के मूर्त रूप हैं। उनके हृदय की प्रत्येक धड़कन अध्यात्म की धड़कन है। उनके प्रशस्त और निर्मल चिन्तन ने जीव और जगत् को, आत्मा और परमात्मा को, धर्म और दर्शन को समझने का विमल और विशुद्ध दृष्टिकोण प्रदान किया।
चौबीस तीर्थंकरों ने इस अध्यात्मप्रधान पुण्य-भूमि पर जन्म लिया। उन्हें वैदिकपरम्परा के अवतारों की तरह पुनः पुनः जन्म ग्रहण कर जन-जन का उत्थान करना अभीष्ट नहीं था, और न तथागत बुद्ध की तरह बोधिसत्वों के माध्यम से पुनः पुनः जन्म लेकर जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार करना ही मान्य था। अवतारवाद में उनका विश्वास नहीं था, उत्तारवाद ही उन्हें पसन्द था।
जैनपरम्परा में तीर्थंकरों का स्थान सर्वोपरि है। नमस्कार महामंत्र में सिद्धों से पूर्व तीर्थंकरों - अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। तीर्थंकर सूर्य की भाँति तेजस्वी होते हैं—'आइच्चेसु अहियं पभासयरा।' वे अपनी ज्ञान-राशियों से विश्व की आत्मा को आलोकित करते हैं। वे अपने युग के प्रबल प्रतिनिधि होते हैं। चन्द्र की तरह वे सौम्य होते हैं। मानवता के परम प्रस्थापक होते हैं। वे साक्षात् द्रष्टा, ज्ञाता तथा आत्मनिर्भर होते हैं। वे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन उत्पन्न होने के पश्चात् उपदेश देते हैं। उनका उपदेश अनुभूत सत्य पर आधृत होता है। उनके उपदेश और व्यवस्था किसी परम्परा से आबद्ध नहीं होती।
वर्तमान अवसर्पिणी काल में इस पावन धरा पर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। उनके बाद बावीस तीर्थंकर हुए, फिर चौबीसवें तीर्थंकर महावीर हुए। सभी तीर्थंकरों की सर्वतंत्र-स्वतंत्र परम्पराएँ थीं और सर्वतंत्र-स्वतंत्र उनका शासन था। श्रमण भगवान् महावीर के समय भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के हजारों श्रमण थे। जब वे महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने भगवान् पार्श्वनाथ की चातुर्याम साधना-पद्धति का परित्याग किया और पंच महाव्रत-साधना-पद्धति को स्वीकार किया। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक १. 'धम्मतित्थयरे जिणे'-समवायांग-१/२ २. नन्दीसूत्र, पट्टावली—१/१८-१९ ३. उत्तराध्ययन-२३/२३
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