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________________ द्वितीय स्थानपद] [१७५ चंचलचलचवलचित्तकीलण-दवप्पिया गहिरहसिय-गीय-णचणरई वणमाला-मेल-मउलकुंडल-सच्छंदविउव्वियाभरणाचारुभूसणधरा सव्वोउयसुरभिकुसुमरइयपलंबसोहंतकंतवियसंतिचित्तवणमालरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधारी णाणाविहवण्णरागवरवत्थचित्तचिल्ल [ल] गणियंसणा विविहदेसिणेवच्छगहियवेसा पमुइयकंदप्प-कलह-के लि-कोलाहलप्पिया हास बोलबहुला असि-मोग्गर-सत्ति-कोत-हत्था अणेगमणि-रयणविविहणिजुत्तविचित्तचिंधगया सुरूवा महिड्डीया महज्जुतीया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडयतुडितथंभियभुया अंगय-कुंडल-मट्टगंडयलकनपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं मण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुतीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भोमेज्जगणगरावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतीणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महतरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महयाऽहतणट्ट-गीय-वाइयतंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति। [१८८ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन्! वाणव्यन्तर देव कहाँ निवास करते हैं ? [१८८ उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर से एक सौ योजन अवंगाहन (प्रवेश) करके तथा नीचे भी एक सौ योजन छोड़ कर, बीच में आठ सौ योजन (प्रदेश) में, वाणव्यन्तर देवों के तिरछे असंख्यात भौमेय (भूमिगृह के समान) लाखों नगरावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकर में संस्थित हैं। (उन नगरवासों के चारों ओर) गहरी और विस्तीर्ण खाइयां एवं परिखाएं खुदी हुई हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट (प्रतीत होता) है। (यथास्थान) प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों प्रतिद्वारों से (वे नगरावास) युक्त हैं। तथा वे नगरावास विविध यन्त्रों, शतघ्नियों, मूसलों एवं मुसुण्ढी नामक शस्त्रों में परिवेष्टित (घिरे हुए) होते हैं। (वे शत्रुओं द्वारा ) अयोध्य (युद्ध न कर सकने योग्य), सदाजयशील, सदागुप्त (सुरक्षित), अडतालीस कोष्ठों (कमरों) से रचित, अडतालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, १. पाठान्तर -मलय वृत्ति में 'कामगमा' पाठ है, जिसका अर्थ किया है -काम-इच्छानुसार गम-प्रवृत्ति करने वाले अर्थात्-स्वेच्छाचारी।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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