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[प्रज्ञापना सूत्र
देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार साठ हजार अर्थात् दो लाख चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से उत्तरदिशा के असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य एवं पुरोवर्तित्व (अग्रेसरत्व) करता हुआ विचरण करता है।
१८१. [१] कहि णं भंते! णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! णागकुमारा देवा परिवसंति ?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जिऊण माझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं चुलसीइ भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खातं।
ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा जाव (सु. १७७) पडिरूवा। तत्थ णं णामकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स अंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे णागकुमारा देवा परिवसंति महिड्डीया महाजुतीया, सेसं जहा ओहियाणं (सु. १७७) जाव विहरंति। ... [१८१-१ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? भगवन् ! नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं?
[१८१-१ उ.] गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के चौरासी लाख भवनावास (भवन) हैं, ऐसा कहा है। वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौरस (चौकोर) हैं, यावत् प्रतिरूप (अत्यन्त सुन्दर) हैं तक, (सू. १७७ के अनुसार सारा वर्णन जानना चाहिए।)
वहाँ पूर्वोक्त भवनावासों में) पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। तीनों अपेक्षाओं से (उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से) (वे स्थान) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहां बहुत-से नागकुमार देव निवास करते हैं। वे महर्द्धिक हैं, महाद्युति वाले हैं, इत्यादि शेष वर्णन, यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) तक, औधिकों (सामान्य भवनवासी देवों) के समान (सू. १७७ के अनुसार समझना चाहिए।)
। [२] धरण-भूयाणंदा एत्थ दुहे णागकुमारिंदा णागकुमाररायणो परिवसंति महिड्डीया, सेसं जहा ओहियाणं जाव (सु. १७७) विहरंति।
__ [१८१-२] यहाँ (इन्हीं पूर्वोक्त स्थानों में) जो दो नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज-धरणेन्द्र और भूतानन्देन्द्र – निवास करते हैं, (वे) महर्द्धिक हैं; शेष वर्णन औधिक (सामान्य भवनवासियों) के समान (सूत्र १७७ के अनुसार) यावत् 'विचरण करते हैं ' (विहरंति) तक समझना चाहिए।
१८२. [१] कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा